समाज में बहसें तो पहले से ही होती रही हैं लेकिन सोशल मीडिया के आने के बाद से इनमें न केवल इजाफा हुआ है बल्कि इनका आकार भी बहुत अधिक बढ़ गया है। सोशल मीडिया के आने से पहले बहसें दोस्तों के समूहों या परिवार के लोगों के बीच तक सीमित होती थीं। लेकिन वर्तमान समय में इनका आकार कुछ लोगों से लेकर लाखों लोगों तक पहुंच गया है।
अधिकतर बहसों का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकलता
सोशल मीडिया पर होने वाली बहसें अकसर व्यक्तिगत आक्षेप या भूतकाल में भटक जाती हैं। इतना ही नहीं कई बार इनमें शामिल लोग उग्र हो जाते हैं और असभ्य भाषा का भी उपयोग करने लगते हैं। हालांकि इनमें से अधिकतर बहसों का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकलता है बल्कि कई मामलों में लोगों के बीच मतभेद ही हो जाते हैं।
जीत कर अपनों को खोने से बेहतर है हारकर बचाए रखना
कई बार लोग बहस तो जीत जाते हैं लेकिन किसी मित्र, सहयोगी, परिजन या रिश्तेदार से अपने संबंध खराब कर लेते हैं। अपने संबंधों को खराब होने से बचाने के लिए हर बहस में जीतना जरूरी नहीं है। बहस में जीत कर भी आप कुछ नहीं पाने वाले हो, तो क्यों न कभी कभी हार कर लोगों का दिल जीता जाए।
कुछ लोग हर कीमत पर बहस जीतना चाहते हैं। हरदम और हर मूल्य पर जीतने की जिद न केवल हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़ रही है बल्कि सामाजिक ताने-बाने और दोस्त, सहकर्मी, परिजन आदि के संग निजी संबंधों पर भी गलत असर डाल रही है। जीतने की ललक कोई बुरी बात नहीं है लेकिन हमारी हमेशा सबसे आगे रहने की सोच हमें जीवन को सही तरीके से जीना भुला देती है।
खुशी प्राप्त करने के प्रयास में हम कई बार दुखी रहने लगते हैं। इससे छोटी-मोटी विफलता हमें कांटे की तरह चुभने लगती हैं और हम उसे सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते हैं। इसके चलते हम अपने अन्य कार्यों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। इसलिए मानसिक शांति के लिए कई बार हारने में भी कोई बुराई नहीं है।