सुरेश कौशिक
दिल्ली फुटबॉल ने करवट ली है। इतिहास में पहली बार कमान एक ऐसे शख्स के पास आई है जिसका दिल्ली फुटबॉल से कोई नाता नहीं रहा है। बदलाव के इस दौर में डीएसए के नए अध्यक्ष शाजी प्रभाकरन के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। वह खुद भी ऐसा मानते हैं पर आशावान है कि चुनौतियों से पार पा लेंगे।
एसोसिएशन की छवि सुधारना, सिस्टम बनाना, क्लबों की एकजुटता, आर्थिक मजबूती, पारदर्शिता, मार्केटिंग जैसे कई अहम मुद्दे उनके जहन में हैं। अगर आगे बढ़ना है तो पेशेवर अंदाज दिखाना ही पड़ेगा। इसलिए एसोसिएशन का सचिव किसी क्लब से बाहर का ही होगा। पेशेवर सचिव होगा तो उसे पैसा भी अच्छा खासा देना होगा।
दिल्ली सॉकर एसोसिएशन के पास अपना मैदान नहीं है। आॅफिस पहले आंबेडकर स्टेडियम में मिला था पर वह ‘मेट्रो’ के लपेटे में आ गया। एक छोटा सा आफिस अभी है पर वहां से कामकाज में दिक्कत आएगी। दिल्ली में फुटबॉल के लिए सबसे चर्चित स्टेडियम है आंबेडकर। इस पर हजारों रुपए किराया देकर लीग चलाना बहुत देर तक संभव नहीं। पूर्व अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर किराया 300 रुपए प्रतिदिन करवाया था पर अब वह बीती बात हो चुका है। 75 फीसद फुटबॉल क्लब तो बीमार हैं। अभ्यास की बात तो दूर, उनके लिए खिलाड़ियों को किट देने के लाले पड़े रहते हैं। प्रचार होता नहीं तो प्रायोजक भी दूरी बनाने लगे हैं। ओएनजीसी और सेल के दम पर कई वर्षों तक लीग चली पर अब नहीं।
लेकिन आत्मविश्वास से भरे शाजी प्रभाकरन इससे चिंतित नहीं हैं। सबका साथ, तभी हो पाएगा दिल्ली फुटबॉल का विकास उनका मूलमंत्र है। वह एसोसिएशन को एक पारिवारिक रूप देना चाहते हैं। फुटबॉल को पेशेवर ढंग से चलाकर दिल्ली को 2021 तक ‘मॉडल स्टेट’ बनाना चाहते हैं। यही नहीं दिल्ली को इस दौरान चैंपियन टीम बनाना भी उनके दिमाग में है। जमीनी स्तर पर काम शुरू करना, ज्यादा से ज्यादा बच्चों को खेल से जोड़ना, फुटबॉल विकास की नीतियां बनाना भी उनके एजंडे में है।
हालांकि सबसे अहम है पैसा लाना। पैसा आएगा तो ही खेल का कल्याण होगा। अच्छे कोचों और रेफरियों के अभाव को दूर करना होगा। जिस राज्य से अनेकों फीफा और राष्ट्रीय दिलचस्पी इसलिए भी धरी है क्योंकि मैच संचालन के लिए पैसा कम मिलता है। लीग के मैच खिलाने की बजाय क्वालीफाई रेफरी दूसरे टूर्नामेंटों में मैच खिलाने को लालायित रहते हैं। वहां पैसा जो ज्यादा मिलता है। संचालन का स्तर अच्छा होगा तो खेल को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।
ऐसा नहीं है कि बीते वर्षों में कुछ न हुआ हो। सुभाष चोपड़ा के अध्यक्ष बनने से पहले और बाद में लीग का प्रायोजित करने के लिए संस्थान आगे आते रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से प्रशासनिक ढील की वजह से भी दिल्ली की फुटबॉल गड़बड़ा गई है। नए क्लब बने, महिला फुटबॉल लीग का शुभारंभ हुआ। सुनील छेत्री, महिला फुटबालरों और युवा खिलाड़ियों ने राष्ट्रीय टीम का हिस्सा बनकर राज्य का मान बढ़ाया। तरुण राय और अनादि बरुआ ने राष्ट्रीय महिला फुटबॉल टीमों को कोचिंग दी।
डीएसए की एक मामले में तो तारीफ की जानी चाहिए कि परिस्थितियां कैसी भी रही हों, लीग का आयोजन नियमित तौर पर हो रहा है। यह तब है जब राज्य सरकार, एआइएफएफ से किसी तरह की मदद नहीं मिलती। मुफ्त मैदान दिलवाने के नेताओं के वादे भी खोखले रहे।
हां, मैदानों की समस्या सबसे गंभीर है। कभी दिल्ली में ढेरों फुटबॉल मैदान थे पर अब ज्यादातर लुप्त हो गए हैं। खिलाड़ियों के लिए खेलना समस्या बन गया है। मैदान ही नहीं रहेंगे तो खिलाड़ी और क्लब कैसे बचेंगे। खैर, नए अध्यक्ष की सोच अच्छी है, लक्ष्य बड़े हैं। इन लक्ष्यों की पूर्ति से पहले उन्हें एसोसिएशन की अंदरूनी खींचतान से जूझना पड़ सकता है।