स्वप्निल कुसाले को 14 साल की उम्र में महाराष्ट्र सरकार की खेल योजना के लिए चुना गया था, जहां उन्होंने शूटिंग को चुना। कोल्हापुर के रहने वाले 28 साल के निशानेबाज ने गुरुवार को पेरिस ओलंपिक में पुरुष 50 मीटर 3P फाइनल में कांस्य पदक जीता। स्वप्निल कुसाले महाकाल के भक्त हैं। उन्होंने अपनी रीढ़ की हड्डी पर महामृत्युंजय मंत्र का टैटू बनवा रखा है, जो त्रिशूल की तरह दिखता है। यही उन्होंने अपनी राइफल पर भारत लिखवा रखा है।

स्वप्निल कुसाले का गांव कंबलवाड़ी है, जो जैविक खेती के लिए जाना जाता है। यह गांव शराब मुक्त भी है। गांव के अधिकांश बच्चों की तरह स्वप्निल कुसाले भी कोल्हापुर के परिते में भोगवती स्कूल में पढ़ने जाते थे। 14 साल की उम्र में वह महाराष्ट्र के क्रीड़ा प्रबोधिनी योजना से जुड़े। इस सरकारी योजना के तहत उनको निशानेबाजी में ट्रेंड किया गया।

गगन नारंग और चैन सिंह को हराया

निशानेबाजी शुरू करने के चार साल बाद स्वप्निल ने 2015 में एशियाई चैंपियनशिप में 50 मीटर राइफल प्रोन स्पर्धा में खिताब जीता। उन्होंने फाइनल में लंदन ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता गगन नारंग और चैन सिंह को हराकर उसी स्पर्धा में राष्ट्रीय खिताब जीता। 50 मीटर 3P स्पर्धा में उनकी रुचि जूनियर लेवल पर करियर के अंतिम दिनों में शुरू हुई। 2015 में वह भारतीय रेलवे से टिकट कलेक्टर के तौर पर जुड़े।

स्वप्निल कुसाले के पिता ने क्या कहा?

स्वप्निल कुसाले के 57 वर्षीय पिता सुरेश को अब भी याद है कि कैसे 10 साल की उम्र में आवासीय स्कूल में गया था। उन्होंने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ को बताते हुए कहा, ‘दस साल की उम्र से ही स्वप्निल सरकारी आवासीय विद्यालयों में रहे। बाद में पुणे में प्रशिक्षण के साथ-साथ भारतीय रेलवे में भी काम किया। उन्हें गांव में हमसे मिलने का समय कम ही मिलता है, लेकिन जब भी वह आते हैं हम सभी के लिए कुछ न कुछ जरूर लाते हैं।’

उन्होंने बताया, ‘इस बार उन्हें ओलंपिक पदक के साथ घर आते देखना वास्तव में हम सभी के लिए एक विशेष क्षण होगा। हम उन्हें इस बार गांव में अधिक समय गुजारते देखना चाहेंगे। गांव के बच्चों और बुजुर्गों को भी उनका ओलंपिक मेडल देखना चाहिए।’

स्वप्निल कुसाले की मां क्या बोलीं?

स्वप्निल कुसाले की मां अनिता गांव की सरपंच हैं। उन्होंने गांव के बारे में बताते हुए कहा, ‘हमारा गांव जैविक खेती के अलावा नशामुक्ति के लिए भी मशहूर है। युवा स्वप्निल अपनी सुबह की दौड़ कभी नहीं छोड़ते थे और छोटी उम्र से ही बहुत फिट थे। जब वह आवासीय विद्यालय और बाद में क्रीड़ा प्रबोधिनी योजना से जुड़े तो वह खेलों में नाम कमाना चाहते थे। जब प्रशिक्षकों ने उन्हें शूटिंग में लाने का फैसला किया तो वह जब भी घर आते तो निशाना साधकर हमें दिखाते कि यह कैसे किया जाता है।’