अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ के वार्षिक कैलेंडर में इन टूर्नामेंटों की अहमियत थी। कार्यक्रम इस व्यवस्थित तरीके से तैयार किया जाता था कि देश के प्रसिद्ध फुटबाल क्लब इन टूर्नामेंटों में खेल सकें। ये नामी क्लब भी टूर्नामेंटों में खेलने को इसलिए तत्पर रहते थे कि मोटी रकम क्लब के खाते में आती थी।

यों तो देश में बड़ी संख्या में फुटबाल टूर्नामेंटों का आयोजन होता था। राज्य की टीमों के लिए राष्ट्रीय फुटबाल की प्रतिष्ठा की प्रतीक थी संतोष ट्राफी। फेडरेशन कप में चैंपियन क्लबों की भागेदारी होती थी, लेकिन खेल की जान थे आइएफए शील्ड, डीसीएम कप, रोवर्स कप, डूरंड कप जैसे टूर्नामेंट। दक्षिण भारत में स्टैफर्ड कप, सेट नागजी और चकोला गोल्ड कप का आकर्षण था।

ओड़ीशा में कलिंगा कप मशहूर था जबकि गुवाहाटी में बारदोलोई ट्राफी में कोलकाता की दिग्गज टीमों ईस्ट बंगाल और मोहन बागान के बीच प्रतिष्ठा की जंग रहती थी। इन सभी टूर्नामेंटों का दर्शक खूब लुत्फ उठाते थे। लेकिन समय बदला और साथ ही खेल को चलाने वालों की सोच भी।

अखिल भारतीय फुटबाल मग के ताकतवर पदाधिकारियों ने खेल को पेशेवर अंदाज देने का प्रयास शुरू किया। नतीजतन 1996 में नेशनल फुटबाल लीग की शुरुआत हो गई। इस लीग के अस्तित्व में आने के साथ ही टूर्नामेंटों की चमक खोने लगी। तब सत्ता पर काबिज थे प्रियरंजन दासमुंशी जो खेल के काफी शौकीन थे।

शुरुआत हुई दिल्ली में डीसीएम फुटबाल टूर्नामेंट के बंद होने से। 1945 में शुरू हुआ यह टूर्नामेंट सन 1990 के दशक के अंत में बंद हो गया। महासंघ और आयोजकों के बीच मतभेद की बात भी सामने आई। खैर, वजह जो भी रही हो, दिल्ली के लिए यह बड़ा झटका था। दिल्ली के फुटबाल क्लबों के लिए यह टूर्नामेंटमहत््पर्ण था।

प्री टूर्नामेंट में दिल्ली की दस प्रथम डिवीजन क्लब टीमें संघर्ष में उतरती थीं – मेन ह्यड्रा’ में जगह बनाने के लिए। दिल्ली के हर खिलाड़ी का तब सपना हुआ करता था डीसीएम और डूरंड कप में खेलना। इसके बंद होने का नुकसान दिल्ली को झेलना पड़ा। वास्तव में इस टूर्नामेंट ने थोड़े समय में ही अपनी पहचान बनाई।

सन 60 के अंतिम वर्षों में विदेशी टीमों को आमंत्रित करने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उससे भारतीय क्लब टीमों को भी फायदा पहुंचा। विदेशी टीमों के साथ खेलकर भारतीय क्लबों के स्तर में भी निखार आया। ईरान, उत्तर व दक्षिण कोरिया, सोवियत संघ, टीम जैसे मजबूत देशों की टीमों के आने से टूर्नामेंट की जहां साख बढ़ी, वहीं दर्शकों का भी आकर्षण बढ़ा।

डीसीएम के साथ-साथ डूरंड कप के प्रति भी सबकी दिलचस्पी रहती थी। एशिया के सबसे पुराने टूर्नामेंट की शुरुआत शिमला में 1888 में हुई थी। इसमें कोलकाता की तोप टीमों के साथ देश की नामी टीमें हिस्सा लेती रही हैं। बंगाल और पंजाब की टीमों के बीच मुकाबले रोमांच पैदा कर देने वाले होते थे। पर डूरंड सासोयटी द्बारा इस टूर्नामेंट को कोलकाता ले जाने के फैसले से दिल्ली की फुटबाल को नुकसान पहुंचा।

आइएफए शील्ड तो मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई रहती थी। पहले थका देने वाली कोलकाता सीनियर डिवीजन लीग के बाद शील्ड बदला चुकाने का भी मंच मानी जाती थी। इस टूर्नामेंट का भी रुतबा बढ़ा। ब्राजील, उरुग्वे, उज्बेकिस्तान जैसे देशों की क्लब टीमों ने दर्शकों को रोमांचित किया। पर आज इस टूर्नामेंट की पहले जैसी चमक नहीं रही। इसी तरह मुंबई में रोवर्स कप का भी अपना जलवा रहा मगर लोकप्रियता घट गई।

इन टूर्नामेंटों की चमक को वापस लाना अब अखिल भारतीय फुटबाल फेडरेशन की योजना में है। अगर ऐसा होता है तो घरेलू टूर्नामेंटों को संजीवनी मिल जाएगी। इसकी जरूरत भी है। इन टूर्नामेंटों के साथ दर्शकों को वापस जोड़ना भी बड़ी चुनौती है। सवाल अखिल भारतीय फुटबाल फेडरेशन की गंभीरता का भी होगा।

2014 में एआइएफएफ ने आइएसएल को देश की टाप लीग घोषित किया है। अपने ही द्बारा शुरू की गई आइ लीग अब दूसरे दर्जे की होकर रह गई है। इसके बाद प्राथमिकता में द्बितीय डिवीजन आई लीग है। नामी टूर्नामेंट पीछे रह गए जिन्हें फिर से संजीवनी देने की जरूरत महसूस की गई है। डरेशन सचिव शाजी प्रभाकरन का कहना है कि जो भी टूर्नामेंट आयोजक इस बारे में हमारी मदद चाहेंगे, हम उनको अलग विंडो देने की कोशिश करेंगे। देखेंगे आइएसएल, आइ लीग और दूसरे टूर्नामेंटों के बीच जो भी समय मिलेगा, उसका सदुपयोग किया जाएगा। लेकिन यह लगभग तय है कि डीसीएम कप फिर से शुरू होने के आसार कम हैं।