देश का माहौल फुटबॉलमय हो रहा है। इतिहास में पहली बार अंडर-17 फुटबॉल विश्व कप में हमारे खिलाड़ी अपना हुनर दिखाएंगे। मेजबान होने के नाते विश्व कप में खेलने का हमारा सपना साकार होगा। इसलिए फीफा रैंकिंग में भारत कहां है, इसके कोई मायने नहीं। 43 दिन बाद यानी छह अक्तूबर से भारतीय सरजमीं पर होने वाली इस महत्त्वपूर्ण प्रतियोगिता में जहां खेलने की खुशी है, तो वहीं संचालन के लिए किसी भारतीय रेफरी को मौका नहीं मिलने का गम भी। अंडर-17 फुटबॉल विश्व कप के लिए जिन 63 रेफरियों को जिम्मेदारी दी गई, उसमें सात महिला रेफरी भी हैं। यह दर्द को और बढ़ाने वाली बात है। इससे भी ज्यादा अफसोसनाक पहलू यह है कि संभावित रेफरियों की सूची में रखने लायक किसी भारतीय को नहीं समझा गया। यह ठीक है कि फीफा ने अपनी तरफ से फिट और योग्य रेफरियों का चयन किया है। शायद फीफा को भारतीय रेफरियों की क्षमता पर भरोसा नहीं है। लेकिन जब कमजोर होने के बावजूद टीम इंडिया को खेलने का मौका दिया जा रहा है तो खेल विकास की खातिर एक-दो भारतीय रेफरियों को संभावितों के तौर पर ट्रेनिंग का अवसर दे दिया जाना चाहिए था।
अखिल भारतीय फुटबॉल फेडरेशन की रेफरी समिति के प्रमुख कर्नल गौतम कार यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकते कि फीफा की निगाह में कोई भारतीय रेफरी संभवत: विश्व कप में मैच का दबाव झेलने लायक नहीं है। अगर ऐसा है तो इसकी जिम्मेदारी भी रेफरी समिति के पदाधिकारियों की है। दरअसल प्रबंधन और प्रबंधन कौशल में हम हल्के साबित हो रहे हैं। वैसे तो कहा जा रहा है कि रेफरियों का स्तर उठाने के लिए काम हो रहा है। समय-समय पर रेफरियों को ह्यटिप्सह्ण दिए जाते हैं। सेमिनार भी होते रहे हैं। गौतम कार की मानें तो अगले विश्व कप में कोई भारतीय जरूर रेफरियों की सूची में होगा।
रेफरी को भारत में बहुत कम पैसाक्या ऐसा संभव हो पाएगा? अपने देश में कोई इस पेशे से जुड़े भी तो क्यों? राज्यों के खेल संघ मात्र डेढ़ सौ रुपए में मैच खिलवाना चाहते हैं। अगर कोई नौकरीपेशा खिलाड़ी अपनी छुट्टी बर्बाद कर मैच खिलाने मैदान पर पहुंचे भी तो उसे करीब दो हजार का नुकसान उठाना पड़ता है। अपना वेतन कटवाकर उसे ऐसा करने की क्या जरूरत पड़ी है। नामी रहे खिलाड़ी इस पेशे से जुड़ते नहीं हैं। शौकिया जो खिलाते हैं, उनके लिए पैसा है नहीं। वैसे लग भी नहीं रहा कि इस क्षेत्र में कोई विशेष काम किया गया है। अखिल भारतीय फुटबॉल पेडरेशन की वोट नीति या चहेतों को इस पद पर बैठा देने से समस्या का हल होने वाला नहीं। वैसे रेफरियों का फिटनेस बेहतर हुई है मगर कुल मिलाकर स्तर में गिरावट ही आई है।
छे नजर दौड़ाई जाए तो 1979 में तोक्यो (जापान) में हुए विश्व युवा फाइनल का मैच खिलाने का गौरव दिल्ली के मैल्विन डिसूजा को मिला था। फीफा के किसी भी विश्वस्तरीय टूर्नामेंट में मैच खिलाने वाले वह पहले भारतीय रेफरी बने थे। यह वही टूर्नामेंट था जिसमें अर्जेंटीना के डाइगो माराडोना ने अपनी छाप छोड़ी थी। मैल्विन ने तब जापान से लौटने पर बताया था कि माराडोना के रूप में फुटबॉल जगत को जादुई खिलाड़ी मिल गया है। उनका यह कथन 1986 के मैक्सिको विश्व कप में सच साबित भी हो गया जब माराडोना ने धूम मचाई थी। मैल्विन ने 1981 में प्री वर्ल्ड कप के मैच भी खिलाए थे। 1982 के स्पेन विश्व कप के लिए भी उनका चयन हो गया था लेकिन दफ्तर से छुट्टी नहीं मिलने के कारण उनका सपना अधूरा रह गया था। बाद में 2002 में तमिलनाडु के के. शंकरन पहले भारतीय रेफरी बने जिन्हें विश्व कप में खिलाने का गौरव मिला।
फीफा पैनल में स्थान बनाने वाले भारत के पहले रेफरी प्रातूल चक्रवर्ती थे। बाद में एलेक्स वाज, एसएस हकीम, एसके भट्टाचार्य, इकराम उल हक, जी. नटराजन, सागर सेन, सुमंत घोष, गुलाब चौहान, एमजी सुवर्णा और अर्जुलन जैसे रेफरियों के नाम चर्चित हुए। इस समय भी फीफा पैनल में भारत के छह रेफरी और सात सहायक रेफरी हैं, लेकिन कोई भी बड़े मैचों को खिलाने की योग्यता रखने लायक नहीं है। महिला वर्ग में भी बेंटला डिकाथ, मारिया रिबेलो और युवेन फर्नांडीज जैसी कुछ रेफरी प्रसिद्ध हुईं, लेकिन अभी पहचान बनाने के लिए उन्हें काफी मेहनत की जरूरत है।
समीक्षा- डिसूजा और शंकरन जैसे रेफरी अब कहां

