दुनिया उसे याद रखती है जो विजेता होता है, हारे हुए को कोई याद नहीं करता। खेल की दुनिया में इस पंक्ति को कई बार दोहराया जाता है। लेकिन, कुछ ऐेसे खिलाड़ी भी होते हैं जिन्हें पदक नहीं जीतने के बाद भी उनके प्रदर्शन के लिए हमेशा याद किया जाता है। इन्हीं में से हैं उड़न सिख मिल्खा सिंह, गुरबचन सिंह, पीटी उषा और दीपा कर्माकर। इन खिलाड़ियों को ओलंपिक में पदक नहीं मिला लेकिन अपने खेल के दम पर इन्होंने देशवासियों का दिल जीत लिया।
हॉकी को छोड़ दें, तो शुरुआत में भारत को ओलंपिक में गंभीरता से नहीं लिया जाता था। यह वह दौर था जब व्यक्तिगत प्रतियोगिता में भारत की मौजूदगी काफी कम होती थी। 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में केडी जाधव ने कुश्ती की फ्री-स्टाइल स्पर्धा का कांस्य पदक जीतकर भारतीयों को खुश होने का मौका दिया। 60 के दशक में भी एक ऐेसा दौर आया जब लगा कि एथलेटिक्स में भारत इतिहास रचने वाला है। हालांकि ऐसा नहीं हो पाया लेकिन देश को खुश होने का मौका जरूर मिला। 1960 के रोम ओलंपिक के समय ‘उड़न सिख’ का प्रदर्शन पूरे शवाब पर था। भारत उनसे पदक की उम्मीद लगाए हुए था। मिल्खा के पुरुष 400 मीटर स्पर्धा के फाइनल में पहुंचने के बाद तो इन उम्मीदों को मानो पर लग गए। मुकाबले में मिल्खा ने जोरदार शुरुआत की। आधे से अधिक समय तक वे बढ़त पर थे, लेकिन निर्णायक क्षणों में उन्होंने ऐसी गलती कर दी कि पदक उनसे छिटक गया।
कहा जाता है कि उन्होंने आखिरी क्षणों में पीछे चल रहे धावकों की ओर देखने की गलती की, जो उन्हें भारी पड़ी। इसी दौरान तीन धावक उनसे आगे निकल गए और फोटो-फिनिश में उन्हें चौथा स्थान मिला। हालांकि इस दौरान वे नया राष्ट्रीय रेकॉर्ड बनाने में सफल रहे थे। सेकंड के सौवें हिस्से से पदक चूकने का वह लम्हा मिल्खा को आज तक याद है और इसका जिक्र करते हुए उनके आंसू अब भी छलक जाते हैं। मिल्खा की पदक जीतने की इस नाकामी के बावजूद उनके इस प्रदर्शन का पूरी दुनिया ने लोहा माना।
गुरबचन सिंह और 1964 का ओलंपिक
1960 के बाद अगले ओलंपिक में भी एथलेटिक्स का एक पदक भारत के बेहद करीब पहुंच कर उससे दूर हो गया। इस बार गुरबचन सिंह रंधावा शानदार प्रदर्शन के बावजूद पदक तक नहीं पहुंच सके। गुरबचन को भाला फेंक, ऊंची और लंबी कूद और बाधा दौड़ का बेजोड़ खिलाड़ी माना जाता था। 110 मीटर बाधा दौड़ में देश को उनसे उम्मीदें थीं, लेकिन उन्हें पांचवां स्थान मिला। हालांकि देश के दिग्गज एथलीट गुरबचन के इस प्रदर्शन को विश्व स्तर पर काफी सराहना मिली थी।
लॉस एंजिलिस ओलंपिक
1984 के लॉस एंजिलिस ओलंपिक की 400 मीटर बाधा दौड़ स्पर्धा में भारत की पीटी उषा सेकंड के सौंवे हिस्से से कांस्य पदक जीतने से रह गई थीं। ‘उड़नपरी’ के नाम से मशहूर इस एथलीट से देश को काफी उम्मीद थी। हो भी क्यूं न, 1982 में दिल्ली में हुए एशियाई खेलों में पीटी उषा ने 100 मीटर और 200 मीटर में रजत पदक जीता और एक साल बाद कुवैत में हुए एशियाई ट्रैक और फील्ड प्रतियोगिता में नया कीर्तिमान के साथ 400 मीटर में स्वर्ण पदक। ऐसे में सभी को लग रहा था कि वह पदक जीतेंगी ही।
हालांकि सेकंड के 100वें हिस्से के अंतर से पदक उनसे दूर हो गया। दरअसल, उषा जब दौड़ के लिए पहुंचीं तो उनमें काफी आत्मविश्वास था। 400 मीटर बाधा दौड़ में वे पदक जीतकर इतिहास रचने के लिए तैयार थीं। वे पांचवीं लेन में दौड़ने वाली थीं। उनके साथ वाली लेन में आस्ट्रेलिया की डेबी फ्लिंटफ थीं। जब दौड़ शुरू हुई तो डेबी समय से पहले ही दौड़ गईं। उनकी इस गलती के कारण इस दौड़ को फिर से शुरू किया गया। यहीं से उषा के पदक की उम्मीद धुंधली हो गई।
हार कर भी जीत गईं दीपा
रियो ओलंपिक भारत के लिए काफी दुर्भाग्यपूर्ण रहा। महज दो पदक लेकर खिलाड़ी देश लौटे। हालांकि इन्हीं खेलों में एक नाम ऐेसा भी था जिसने पदक हारकर भी दिल जीत लिया। भारत की जिम्नास्ट दीपा कर्मकार वाल्ट स्पर्धा में चौथे स्थान पर रहीं। महज कुछ अंकों से पदक उनसे दूर हो गया। हालांकि फाइनल तक पहुंचकर ही उन्होंने इतिहास रच दिया। ऐेसा करने वाली वह पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं।