दुनिया भर में फुटबॉल की खुमारी छाई हुई है। पर अपने देश में इस खेल को लेकर मायूसी है। इसकी वजह है एशियाई खेलों में भारतीय फुटबॉल टीमों को नहीं भेजने का फैसला। यह इसलिए किया गया क्योंकि भारतीय ओलंपिक संघ ने एशियाड के लिए जो मानक तय किए थे, उसकी कसौटी पर फुटबॉल टीमें (पुरुष और महिला) खरी नहीं उतरतीं। चयन मापदंड पिछले एशियाई खेलों में आठवें स्थान का प्रदर्शन रखा गया था। कितना अजीबोगरीब है आईओए का यह फैसला। जो खेल आम लोगों का है, जिस खेल में हमारा सुनहरा अतीत रहा है, पिछले दो वर्षों में जिस खेल में हमने अपनी रैंकिंग में अप्रत्याशित सुधार किया है, जिसमें हमने पिछले साल अंडर-17 विश्व कप की सफल मेजबानी की, जिस देश को अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल महासंघ (फीफा) ने ह्यस्लीपिंग जायंटह्ण की संज्ञा दी है, जिस खेल को दुनिया में सबसे ज्यादा लोकप्रियता हासिल है, उसे हमारे खेल आकाओं ने इसलिए नजरअंदाज कर दिया कि पिछले एशियाड में हमारा प्रदर्शन कमजोर रहा और हमारी रैंकिंग बेहतर नहीं है।

अरे, आप रैंकिंग का रोना क्यों रो रहे हो। अगर हमारी रैंकिंग नंबर वन होती और एशियाड में हाल वैसा ही होता जैसा नंबर वन टीम जर्मर्नी का रूस में चल रहे विश्व कप में हुआ तो हम क्या करते। रैंकिंग पर मत जाइए, खेल की भावना को समझिए। ओलंपिक जैसे भव्य खेल मेले का सिद्धांत है कि पदक जीतना उतना मायने नहीं रखता जितना इसमें भाग लेना। आखिर ओलंपिक आंदोलन का ही तो हिस्सा है भारतीय ओलंपिक संघ। टीम मुकाबलों में रैंकिंग का अपना महत्व भी होता है। ऐसी धारणा है कि शीर्ष रैंकिंग वाली टीमों के लिए ‘ड्रा’ थोड़ा अनुकूल रहता है। उसे शुरू में ही ताकतवर टीमों से नहीं टकराना पड़ता। लेकिन रैंकिंग या चयन मापदंड को लेकर किसी टीम को एशियाई खेलों जैसे महत्त्वपूर्ण खेल मेले से दूर रखा जाए, यह उचित नहीं लगता।

विश्व कप या ओलंपिक की तरह इसमें भाग लेने के लिए क्वालीफाइंग दौर से नहीं गुजरना पड़ता। मैदान में सीधी लड़ाई का अवसर मिलता है। लेकिन फुटबॉल टीमों को इससे दूर रखकर आप खिलाड़ियों से अपनी क्षमता साबित करने का अवसर छीन रहे हैं। मानक खिलाड़ियों को अपनी योग्यता साबित करने के लिए होने चाहिए, बर्बादी के लिए नहीं। और फिर हम किन खेलों के सामने फुटबॉलरों का अपमान कर रहे हैं। पेनसाक सिलाट, सांबो और कुराश जैसे खेलों को आप एशियाड के लिए हरी झंडी दिखा रहे हैं जिनको कोई जानता भी नहीं, जिनके संघों को सरकारी मान्यता तक नहीं है। चलो, नए खेलों को प्रोत्साहन देना अच्छी बात है। लेकिन फुटबॉल की कीमत पर कतई ऐसा नहीं होना चाहिए।

चयन की कसौटी पर तो सेपक तकरा और हैंडबाल जैसे खेल भी नहीं उतरते पर आप उनकी टीमें भेज रहे हैं। चार साल पहले भी फुटबॉल टीमों को एशियाई खेलों में भेजने को लेकर तमाशा हुआ था। अंतिम क्षणों में टीमों को भाग लेने की मंजूरी दी गई थी। तब और अब की स्थिति में काफी फर्क है। चंद वर्षों से खेल पर काफी तवज्जो दी जा रही है। आयु वर्ग फुटबॉल के साथ-साथ सीनियर टीम की रैंकिंग में काफी सुधार आया है। टीम 173वीं रैंकिंग तक लुढ़क गई थी। लेकिन खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों की मेहनत के कारण आज भारत इसे सौ से नीचे ले आने में सफल रहा। भारत अगले साल होने वाले एएफसी कप के फाइनल राउंड में भी खेलने का हक पा चुका है।

भारतीय फुटबॉल टीम की एशिया में रैंकिंग 13 है जो तय मानक से बहुत ज्यादा दूर नहीं है। सोच को बदलिए, खेल की बेहतरी के लिए खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में उतारकर अनुभव दिलाना समय की मांग है। पुराने तरीकों पर ही चलते रहेंगे तो खेल का नुकसान होगा। नीता अंबानी (अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ में भारत की प्रतिनिधि), अभिनेता अभिषेक बच्चन, जॉन अब्राहम, सचिन तेंदुलकर भी फुटबॉल से जुड़े हुए हैं पर वे इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं।

भारत का फुटबॉल से नाता पुराना

फुटबॉल से भारत का नाता उतना ही पुराना है जितने पुराने हैं एशियाई खेल। भारत एशियाई खेलों का जन्मदाता है और इन खेलों की फुटबॉल स्पर्धा का पहला स्वर्ण भारत के ही नाम है। 1951 में दिल्ली के नेशनल स्टेडियम पर मेवालाल के गोल से भारत ने ईरान को हराकर चैंपियन बनने का गौरव पाया था। 1962 में जकार्ता (इंडोनेशिया) में हुए खेलों में भारत ने अपनी स्वर्णिम सफलता को फिर दोहराया था। 1970 में भारत को कांस्य पदक नसीब हुआ था। 1982 में जब भारत ने दूसरी बार एशियाई खेलों की मेजबानी की थी तो क्वार्टर फाइनल में सऊदी अरब से आखिरी क्षणों में गोल खाकर बाहर हुआ था।