Hockey World Cup 2023: मेंस हॉकी वर्ल्ड कप (Hockey World Cup 2023) में भारतीय टीम को 46 साल बाद चैंपियन बनाने एक ऐसा खिलाड़ी उतरेगा, जिसका बचपन खेत में काम करके परिवार की मदद करने में गुजरा है। पांच साल पहले तक उसके गांव में बिजली तक नहीं थी। उसके परिवार की माली हालत इतनी खराब थी कि वे लालटेन तक नहीं खरीद सकते थे और डिबरी (दिया) के सहारे रात काटते थे। यह खिलाड़ी नीलम खेस (Nilam Xess) हैं। राउरकेला के कादोबहाल गांव के रहने वाला यह 24 साल का डिफेंडर स्पेन (Spain) के खिलाफ 13 जनवरी को वर्ल्ड कप डेब्यू करेगा।
नीलम खेस (Nilam Xess) ने कादोबहाल (Kadobahal) में ही हॉकी खेलना शुरू किया। राउरकेला (Rourkela) के बिरसा मुंडा स्टेडियम (Birsa Munda Stadium) में जितना लोगों के बैठने की क्षमता है, उससे भी कम इस गांव की आबादी है, लेकिन हॉकी की दीवानगी काफी है। खेस ने ऐसे मैदान में हॉकी खेलना शुरू किया, जिसमें घास तक नहीं है। दोनों गोलपोस्ट पर फटा हुआ नेट मिलेगा। बगल में रोड़ है। यहां से गुजर रही गाड़ियों को बॉल न लगे इसके लिए बांस के दो खंभे लगाए गए हैं।
नीलम खेस ने कैसे शुरू किया हॉकी खेलना
नीलम खेस (Nilam Xess) जब इस मैदान पर उतरे तो उनकी उम्र महज 7 साल थी। उन्होंने कहा, “मैं स्कूल में ब्रेक के दौरान अपने भाई के साथ खेलता था। घर आने के बाद, मैं अपने माता-पिता को आलू और फूलगोभी की खेत में मदद करता। शाम को गांव के लोग हॉकी खेलने के लिए मिलते। मैं उनके साथ खेलता था।”
डिफेंडर बनने की रोचक कहानी
नीलम खेस (Nilam Xess) हॉकी टाइम पास करने के लिए खेलते थे और डिफेंडर इसलिए बनगए क्योंकि अन्य लोग फॉरवर्ड के तौर पर खेलना और गोल करना चाहते थे। पहले भी आदिवासी क्षेत्रों ने हॉकी को कई हीरो दिए हैं। इनमें माइकल काइंडो, दिलीप टिर्की, लजारा बारला और प्रबोध टिर्की शामिल हैं। एक समय ऐसा था जब खेस को इनके बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन तब उन्होंने यह भी नहीं सोचा था कि वह कभी भारत के लिए हॉकी खेलेंगे।

लालटेन तक नहीं खरीद सकता था परिवार
नीलम खेस (Nilam Xess) अपने गांव कादोबहाल को लेकर मजाक में कहते हैं कि यह ऐसी जगह नहीं है, जहां लोग बड़े सपने देखते हैं। उन्होंने कहा, “करेंट भी नहीं था। विश्व में क्या हो रहा है दूर, मुझे तो यह भी पता नहीं रहता था कि राउरकेला में क्या हो रहा है। कभी-कभी, मुझे अपनी कहानी बताने में शर्म आती है, लेकिन फिर मैं सोचता हूं लगता है कि वाह मैं कहां पहुंच गया।” नीलम खेस (Nilam Xess) के पिता बिपिन खेस कहते हैं, ” साल 2017 तक गांव में बिजली ही नहीं थी। तबतक हम अंधेरे में ही रहते थे। हम एक लालटेन तक नहीं खरीद सकते थे। घर में छोटे-मोटे बोतल होते थे। खाली हो ने पर हम उन्हें धोते थे और सूखने देते थे। फिर बोतल के ऊपर छोटा सा छेद करते थे, उसमें थोड़ा मिट्टी का तेल डालकर जलाते थे। इस तरह से हमारी रात गुजरती थी।”

नीलम खेस अच्छी नौकरी करना चाहते थे
यह ऐसा वक्त था जब नीलम खेस (Nilam Xess) अपनी पढ़ाई पूरी करके अच्छी नौकरी करना चाहते थे। हॉकी बस वह मजे के लिए खेलते थे। साल 2010 में सबकुछ बदल गया। उनका चयन सुंदरगढ़ के स्पोर्ट्स हॉस्टल के लिए चयन हुआ। उन्होंने इसे लेकर कहा, ” तब मझे पता चला हॉकी खेलकर भी पैसा कमाया जा सकता है। इज्जत मिलती है। इसलिए मैंने खिलाड़ी बनने के लिए कड़ी मेहनत की। फिर मैंने लंदन ओलंपिक्स 2012 देखा। इसके बाद मैंने भारत के लिए खेलने का गोल सेट किया।”
बीरेंद्र लकड़ा ने की काफी मदद
नीलम खेस (Nilam Xess) के परिवार ने हॉकी स्टिक खरीदने और अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पैसे उधार लिए। स्थानीय कोच तेजकुमार खेस ने उन्हें डिफेंडिंग की कला सिखाई। जब उनका पहली बार नेशनल कैंप के लिए चयन हुआ तो ट्राइबेल बेल्ट के एक और स्टार बीरेंद्र लकड़ा ने उनकी काफी मदद की। खेस ने उन्हें लेकर कहा, “वह मुझे अपने भाई जैसा मानते थे और मुझे बहुत सी चीजें सिखाईं। उन्होंने टैक्लिंग, पोजिशनिंग, दबाव झेलने के बारे में सिखाया।”