भारत और इंग्लैंड के बीच राजकोट में तीसरे टेस्ट की शुरुआत से ठीक पहले जब दिग्गज अनिल कुंबले ने सरफराज खान को टेस्ट कैप सौंपी तो वह अपने आंसू नहीं रोक सके। वहीं उनकी पत्नी थीं और वह भी अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाईं। फिर वह अपने जीवन के सबसे प्रभावशाली शख्स अपने पिता नौशाद के पास दौड़े और उन्हें गले लगा लिया। उन्होंने एक बार इंडियन एक्सप्रेस से कहा था, ”जब मैं अपने देश के लिए खेलूंगा तो पूरा दिन रोऊंगा।” सरफराज ने डेब्यू मैच में 66 गेंदों में 62 रन की बेहतरीन पारी खेली और रन आउट हुए। उन्होंने भारत को पांच विकेट पर 326 रन तक पहुंचने में बड़ी भूमिका निभाई।

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सरफराज ने अपनी पूरी पारी के दौरान साहस, संयम और इच्छाशक्ति का परिचय दिया। इससे पता चला कि वह टेस्ट स्तर के खिलाड़ी हैं। इंग्लैंड के गेंदबाजों ने उनकी परीक्षा ली। पेस और सीम बॉलिंग, स्पिन और शानदार फील्डिंग। उनके पास हर सवाल का जवाब था। सरफराज ने भारतीय टीम तक पहुंचने के लिए खूब संघर्ष किया है। इसमें उनके अब्बू का योगदान बहुत बड़ा रहा है, जो आजमगढ़ से मुंबई आए और काफी मुश्किलों का समाना किया। नौशाद अपने बेटे का डेब्यू देखने सौराष्ट्र नहीं आने वाले थे। सूर्यकुमार यादव के मनाने पर वह मैच देखने पहुंचे।

रंग लाई 15 साल की मेहनत

सरफराज का सफर जुनून और दृढ़ता की बेहतरीन कहानी है। लगभग 15 वर्षों तक वह हर दिन पांच बजे उठते, ताकि सुबह 6.30 बजे अभ्यास के लिए क्रॉस मैदान पहुंच सकें। वह धूल भरी पिचों पर बल्लेबाजी कौशल को निखारने में घंटों बिताते। जब वह नहीं जाते थे तब भाई मुशीर के साथ विशेष क्रिकेट पिच पर अभ्यास करते थे। इसे नौशाद ने अपने घर के ठीक बाहर तैयार किया था। नौशाद थ्रो-डाउन करने में घंटों बिताते थे। विपक्षी टीमों को दोस्ताना मैच खेलने के लिए पैसे देते थे। इसमें सरफराज पूरी पारी खेलते थे भले ही टीम हारे या जीते।

आसान नहीं रहा जीवन

नौशाद और उनके बेटों का जीवन आसान नहीं रहा है। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से पलायन करने के बाद नौशाद कभी ट्रेन में टॉफी और खीरे बेचते थे। ट्रैक पैंट भी बेचते थे। वह पश्चिमी रेलवे में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे। कमाई बहुत कम थी। इसलिए वह यह काम करते थे। एक बार उन्होंने बताया था, “हम झुग्गियों में रहते। शौचालय के लिए लाइन में खड़े होते, जहां लोग मेरे बेटों को थप्पड़ मारकर आगे निकल जाते थे। हम कुछ लेकर नहीं आए और कुछ लेकर नहीं जाएंगे। सरफराज ने एक दिन मुझसे कहा, ‘अब्बू तो क्या हुआ अगर भारत के लिए नहीं खेल पाया। हम वापस ट्रैक-पैंट बेच लेंगे।”

चार घंटे तक पैड पहनकर रहे

सरफराज के दिमाग में वो सारी बातें घूम रही होंगी जब उन्होंने बल्लेबाजी के लिए अपनी बारी के लिए करीब चार घंटे इंतजार किया। उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में खुलासा किया, ”मुझे चार घंटे तक पैड पहनकर रहा, लेकिन मैंने खुद से कहा कि मैंने इतना धैर्य रखा है। यह और धैर्य रखने के लिए समय है।”

अब्बू नहीं आने वाले थे मैच देखने

जब बल्लेबाजी करने का समय आया तो उन्होंने कोई घबराहट नहीं दिखाई। यह पिता और पुत्र दोनों के लिए एक सपना सच होने जैसा था। सरफराज ने दिन का खेल समाप्त होने के बाद कहा, “उनके सामने भारत के लिए खेलना मेरा सपना था। मेरे अब्बू पहले मैच देखने नहीं आ रहे थे, लेकिन कुछ लोगों ने उनसे रिक्वेस्ट की और वह इस खास पल का गवाह बनने पहुंचे। मुझे लगता है कि अब मेरे कंधों से कुछ बोझ उतर गया है क्योंकि मैंने अपने पिता के प्रयासों को बर्बाद नहीं होने दिया। बाद में पता चला कि सरफराज की मुंबई टीम के साथी सूर्यकुमार यादव ने उनके पिता को राजकोट जाने के लिए राजी किया।

सरफराज को बेहतरीन प्रदर्शन के बाद भी लंबा इंतजार करना पड़ा

सरफराज की सुबह की शुरुआत अन्य दिनों की तरह दलेर मेहंदी और प्रीतम द्वारा गाए गए फिल्म दंगल के टाइटल ट्रैक को सुनकर हुई। यह गाना संघर्ष और प्रेरणाओं की बात करता है और वह इससे अपना से जुड़ा महसूस करते हैं। मैदान पर भी सरफराज का संघर्ष जारी रहा। सरफराज को बेहतरीन प्रदर्शन के बाद भी लंबा इंतजार करना पड़ा। उन्हें दिसंबर, 2022 में बांग्लादेश दौरे के लिए भारत की टीम में चुना गया था, लेकिन सीनियर खिलाड़ियों के लौटने पर उन्हें बाहर कर दिया गया। यह बात चारों ओर फैल गई कि वह गति और उछाल से निपटने में सहज नहीं हैं। आईपीएल अच्छा न रहने से दिक्कत और बढ़ी।

पिता शेर का रखते हैं शौक

कई बार ऐसा हुआ जब पिता और पुत्र दोनों मौका न मिलने से निराश हुए, लेकिन शेर का शौक रखने वाले नौशाद अपने बेटे को सलाह देते थे, “रख हौसला वो मंजर भी आएगा, प्यासे के पास समुंदर भी आएगा।” उनकी एक और पसंदीदा लाइन है, “थक कर न बैठ ऐ मंजिल के मुसाफिर। मंजिल भी मिलेगी और मिलने का मजा भी आएगा।”