राजेंद्र सजवान
देर से ही सही प्रशिक्षकों और सहायक स्टाफ के वेतन में वृद्धि कर सरकार ने स्वागतयोग्य कदम उठाया है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के लिए दी जानी वाली मदद में भी खासी वृद्धि की गई है। चूंकि सरकार का इरादा 2028 के ओलंपिक तक भारत को खेल महाशक्ति बनाने का है, इसलिए खिलाडियों, प्रशिक्षकों और खेल से जुड़ी तमाम इकाइयों को प्रोत्साहन दिया जाना भी जरुरी है। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि क्या वेतन बढ़ाने और सुविधाए देने से हम चैंपियन खिलाडी तैयार कर पाएंगे?
भारतीय प्रशिक्षकों और गुरु खलीफाओं की सबसे बड़ी शिकायत यह रही है कि उन्हें पर्याप्त आदर सम्मान नहीं मिल पाता। एक तरफ तो सरकार उन्हें द्रोणाचार्य और अन्य राष्ट्रीय पुरस्कार बांटती है तो दूसरी तरफ उनके सर पर विदेशी प्रशिक्षक बैठा कर नीचा दिखाया जाता है। राष्ट्रीय प्रशिक्षक का वेतन एक से तीन लाख कर देना ही काफी नहीं है। ज्यादातर प्रशिक्षकों की शिकायत यह है कि सरकार और खेल संघ उन्हें विदेशी प्रशिक्षकों की तुलना में कमतर आंकते हैं।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के लिए दी जानी मदद को बढ़ाना स्वागत योग्य कदम है ताकि खेल संघ और उनकी राज्य इकाइयां बेहतर आयोजन कर सकें लेकिन देश में कितने खेल संघ हैं जोकि विभिन्न आयु वर्गों की राष्ट्रीय चैम्पियनशिप पूरी निष्ठा और ईमानदारी से कराते हैं? ज्यादातर महासंघों का हाल यह है कि सालों साल उनके सब जूनियर, जूनियर और सीनियर आयोजन होते ही नहीं। उनको खेल और खिलाडियों से कोई लेना देना नहीं। खेल के हिस्से की राशि का दुरुपयोग उनका चरित्र रहा है। ज्यादातर खेल संघों का हाल यह है कि उच्च पदों पर बैठे अधिकारी मंत्रालय और साई के साथ सांठ गांठ कर खिलाडियों के हिस्से की रकम डकार जाते हैं।
भारतीय खेलों पर सरसरी नजर डाली जाए तो सरकारी मदद पर पलने वाले ज्यादातर खेल अपने दायित्वों का निर्वाह पूरी ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं। एक सर्वे से पता चला है कि दस-बारह खेलों को छोड़ बाकी में अंतरकलह चरम पर है और देशवासियों के खून पसीने की कमाई को अपनी मौज-मस्ती पर खर्च कर रहे हैं। वरना क्या कारण है कि कुश्ती, हाकी, बैडमिंटन, मुक्केबाजी, एथलेटिक, भारोत्तोलन और कुछ अन्य खेलों को छोड़ बाकी में भारतीय खिलाडी फजीहत करवाते आ रहे हैं। खासकर, तमाम टीम खेलों की हालत बेहद खराब है। नतीजन फुटबाल, वालीबाल, बास्केटबाल, हैंडबाल जैसे खेलों में एशियाई खेलों और ओलंपिक पदक लगातार दूर होते जा रहे हैं।
कई पूर्व खिलाड़ी और प्रशिक्षक सरकार से यह पूछ रहे हैं कि विदेशी प्रशिक्षकों पर ज्यादा मेहरबानी का क्या फायदा मिला है? एक तरफ तो द्रोणाचार्य पुरस्कारों की बंदरबांट चल रही है तो दूसरी तरफ आलम यह है कि सम्मान पाने वाले हमारे अपने प्रशिक्षक भारतीय खेलों का भला नहीं कर पा रहे। यदि सचमुच भारत को खेलों में कुछ बड़ा करना है तो प्रशिक्षकों, खेल मंत्रालय और साई के अधिकारियों की जवाबदेही तय करने से ही सम्भव हो पाएगा। वरना वेतन और सुविधाएं बढ़ाने से शायद ही कुछ हासिल हो पाए।