एशियाई खेलों में भारतीय एथलीट्स हर बार झोली भर कर मेडल लाते हैं। एशियाई खेलों में भारत के कई एथलीट्स को पोडियम पर पर खड़े होने का मौका मिला। स्वदेश लौटने पर केंद्र और राज्य सरकारें झोली भर भर कर इनाम देती हैं, लेकिन शांति सुंदराजन के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। शांति सुंदराजन ने भी साल 2006 एशियाई खेलों में देश के लिए रजत पदक जीता था।
इसके बाद की उनकी कहानी बाकी मेडलिस्ट की तरह नहीं रही। ट्रैक की क्वीन बनने का सपना देखने वाली शांति ईंट के भट्टे की मजदूर बन गईं हालांकि ऐसा हुआ क्या जिसकी वजह से भारत को एक प्रतिभावान एथलीट खोना पड़ा।
मजदूर थे शांति के माता-पिता
शांति सुंदराजन का जन्म तमिलनाडु के पुड्डूकुटाई जिले के कथाकुरुची गांव में हुआ था। उनके माता-पिता ईंट के भट्टे पर काम करते थे जिसके लिए उन्हें दूसरे शहर जाना पड़ता। गांव में न पीने का पानी था न बिजली। इन सबके बीच शांति पर अपने तीन छोटे भाई-बहनों का ख्याल रखने की जिम्मेदारी भी थी। शांति के एथलेटिक्स करियर की शुरुआत उनके दादा की वजह से हुई जो कि खुद एक एथलीट थे।
एशियन गेम्स में जीता सिल्वर
स्कूल के स्तर से कॉलेज तक शांति सुंदराजन एक के बाद एक मेडल लाती रहीं जिससे मिलने वाली स्कॉलरशिप और पैसे से अपना जीवन काट रही थीं। शांति सुंदराजन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 11 मेडल जीते थे लेकिन उनके करियर में सबसे बड़ा मौका आया साल 2006 एशियाई खेलों में। इन एशियाई खेलों में उन्होंने 800 मीटर इवेंट में हिस्सा लिया। वह रेस के दौरान ट्रैक पर गिर गई थी लेकिन फिर उठीं और एशियाई खेलों में देश को सिल्वर मेडल दिलाया। शांति को इस मेडल से उन्हें नई पहचान मिलेगी लेकिन हुआ कुछ और।
जेंडर टेस्ट के बाद अवसाद में चली गई थी शांति
इस जीत के अगले ही दिन एथलेटिक्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के मेडिकल अधिकारी डॉक्टर अरुण कुमार मेंदीरत्ता उन्हें जेंडर टेस्ट के लिए ले गए। शांति सुंदराजन को इसका कारण भी बताया नहीं गया। इसके बाद आईओए को खत लिखा गया जिसमें कहा गया कि शांति में महिला होने के लक्षण नहीं है। शांति से एशियाई खेलों समेत उनके सभी मेडल ले लिए गए और उन्हें किसी तरह की प्राइज मनी भी नहीं मिली। इस फैसले से शांति पूरी तरह टूट गई और अवसाद में चली गई। उन्होंने खुद को खत्म करने की कोशिश की।
ईंट के भट्टे पर काम करने लगी शांति
शांति ने बहुत कोशिश की लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। इसी कारण उन्हें अपना पेट पालने के लिए माता-पिता की तरह ईंट के भट्टे पर काम करना पड़ा, जहां उन्हें सिर्फ 200 रुपए ही दिहाड़ी मिलती थी। उन्हें राज्य सरकार की ओर से कोच की अस्थायी नौकरी मिली, लेकिन बेहद कम तनख्वाह होने के कारण उन्होंने उसे छोड़ दिया। जेंडर राइट्स के लिए काम करने वालों की मदद से शांति सुंदराजन को साल 2013 में साई के कोचिंग प्रोग्राम में जगह मिली और उन्होंने एक साल का कोर्स किया। लंबी लड़ाई के बाद साल 2016 में उन्हें एक स्थायी कोच की नौकरी मिली जिससे वह अब पूरा परिवार पाल रही हैं।