मुंबई की राजनीति में लंबे समय तक दबदबा रखने वाली उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) आज एक अहम मोड़ पर खड़ी है। कभी नगर निगम में निर्विवाद शक्ति रही यह पार्टी आज पहचान, नेतृत्व और समर्थन को लेकर संकट झेल रही है। अगला बृहन्मुंबई महानगरपालिका (BMC) चुनाव न सिर्फ पार्टी की प्रतिष्ठा के लिए, बल्कि उसके राजनीतिक अस्तित्व के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं।

पार्टी का बिखराव और नेतृत्व संकट

1997 से 2022 तक शिवसेना ने BMC पर लगातार राज किया। लेकिन मार्च 2022 में जब नगर निकाय का कार्यकाल समाप्त हुआ और प्रशासक की नियुक्ति हुई, तभी से पार्टी में टूट की शुरुआत हो गई। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में हुए विद्रोह ने शिवसेना को दो हिस्सों में बांट दिया – शिंदे गुट और उद्धव गुट (यूबीटी)। शिंदे गुट को चुनाव आयोग से शिवसेना का नाम और प्रतीक भी मिल गया।

43 में से अधिकतर पार्षद शिंदे के साथ चले गए, जिनमें अमेय घोले, समाधान सरवणकर, शीतल म्हात्रे, यशवंत जाधव, राजू पेडनेकर, सुवर्णा करंजे और स्नेहल शिंदे जैसे मजबूत स्थानीय नेता शामिल हैं। इससे यूबीटी का जमीनी संगठन गहराई से कमजोर हुआ है। मुंबई विश्वविद्यालय से जुड़े राजनीतिक विश्लेषक डॉ. संजय पाटिल कहते हैं, “पार्षदों का जाना केवल राजनीतिक नहीं, संगठनात्मक नुकसान भी है। वार्ड स्तर पर पार्टी की रीढ़ टूट गई है।”

संगठन का कमजोर होता ढांचा

BMC के पुराने कैडर से लेकर बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं तक, पार्टी में असमंजस और अनिश्चितता है। एक पूर्व पार्षद के अनुसार, “सत्ता में न होने पर पार्षदों के लिए प्रासंगिक बने रहना कठिन हो जाता है। स्थानीय मजबूत नेतृत्व के बिना कार्यकर्ताओं को जोड़े रखना लगभग असंभव है।” दादर के एक पूर्व शाखा प्रमुख का कहना है, “हम नेतृत्व से कटा महसूस करते हैं। न दिशा साफ है, न रणनीति। इससे कैडर का मनोबल गिरा है।”

युवा सेना की निष्क्रियता

कभी पार्टी की ऊर्जा माने जाने वाली युवा सेना भी अब कमजोर दिख रही है। इसके अध्यक्ष आदित्य ठाकरे की लोकप्रियता तो है, लेकिन उनकी कार्यकर्ताओं से दूरी एक समस्या बन चुकी है। एक युवा कार्यकर्ता बताते हैं, “चुनावों के समय ही उनका संपर्क होता है, जबकि शिंदे गुट के नेता हर स्थानीय आयोजन में भाग लेते हैं, जिससे उनका जमीनी नेटवर्क मजबूत हो रहा है।”

विचारधारा में भटकाव और असमंजस

पार्टी की विचारधारा को लेकर भी असमंजस है। शिवसेना परंपरागत रूप से मराठी और हिंदुत्व आधारित पार्टी रही है, लेकिन बीते वर्षों में उद्धव गुट ने आधार व्यापक करने के लिए कुछ उदार रुख अपनाए हैं। इससे पार्टी के पारंपरिक समर्थकों में भ्रम फैला है। परेल के एक मतदाता कहते हैं, “हम जैसे मराठी मध्यम वर्ग के लोग जो हिंदुत्व में विश्वास रखते हैं, वे समझ नहीं पा रहे कि ठाकरे के साथ रहें या शिंदे के साथ।”

इन सब कठिनाइयों के बावजूद, उद्धव ठाकरे के प्रति आम मुंबईकरों की भावनात्मक नजदीकी पार्टी के लिए संबल बनी हुई है। पूर्व पार्षद अनिल कोकिल कहते हैं, “उद्धव जी ने कोविड के समय जैसा काम किया, वो जनता भूली नहीं है। पार्टी भले बंटी हो, लेकिन मुंबई में ठाकरे साहब के लिए इज्जत और भावना अब भी ज़िंदा है।”

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इसके अलावा, आरे कार शेड और धारावी पुनर्विकास जैसी परियोजनाओं का विरोध कर पार्टी ने पर्यावरण और स्थानीयता के मुद्दों को उठाया है, जिससे मराठी समुदाय में समर्थन बना हुआ है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “मुंबई केवल इमारतों से नहीं बनती, उसकी आत्मा होती है – और हम उस आत्मा की लड़ाई लड़ रहे हैं।”

पार्टी के अंदर कई नेता मानते हैं कि अगर उद्धव ठाकरे और उनके चचेरे भाई राज ठाकरे (मनसे) एक साथ आते हैं, तो मराठी मतों के बंटवारे को रोका जा सकता है और यह गठबंधन BMC चुनावों में निर्णायक साबित हो सकता है। मनसे भले राज्य स्तर पर बड़ी ताकत न हो, लेकिन पिछले BMC चुनाव में उसे 7.73% वोट और सात सीटें मिली थीं।

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एक यूबीटी पदाधिकारी कहते हैं, “अगर दोनों भाई एक होते हैं, तो मराठी वोट बैंक एकजुट हो जाएगा और पार्टी में नई ऊर्जा आ जाएगी। पर्दे के पीछे इसकी कोशिशें चल रही हैं।” हालांकि, यह गठबंधन आसान नहीं है। मनसे के कई नेता, जैसे संदीप देशपांडे, इसका विरोध कर रहे हैं। इसके अलावा, पार्टी को यह भी सोचना होगा कि मराठी वोटों को एकजुट करने की कोशिश कहीं उसके अल्पसंख्यक वोटर्स को दूर न कर दे, जिनके बीच उसने हाल के वर्षों में पकड़ बनाई है।

डॉ. पाटिल कहते हैं, “यह केवल चुनाव जीतने की बात नहीं है। असली सवाल है – क्या शिवसेना (यूबीटी) अपनी पहचान और प्रासंगिकता बचाए रख पाएगी?”

BMC चुनाव शिवसेना (यूबीटी) के लिए अग्निपरीक्षा हैं। पार्टी विभाजन, कैडर की हताशा, नेतृत्व की दूरियां और वैचारिक भ्रम के बीच से गुजर रही है। लेकिन उद्धव ठाकरे की छवि, भावनात्मक जुड़ाव और कुछ जमीनी मुद्दों पर पार्टी की मुखरता उसकी ताकत बनी हुई है। क्या पार्टी इन कमजोरियों को दूर कर नई रणनीति के साथ चुनावी मैदान में उतरेगी? क्या राज ठाकरे के साथ एकता हो पाएगी? और सबसे अहम – क्या मुंबईकर एक बार फिर उद्धव ठाकरे पर भरोसा जताएंगे?

आने वाले चार महीने इन तमाम सवालों के जवाब देंगे। लेकिन एक बात तय है – मुंबई की सियासत में शिवसेना (यूबीटी) को नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं होगा।