किसान दिल्ली आ चुके हैं। वे दिल्ली के रामलीला मैदान में किसान महापंचायत (Kisan Mahapanchayat) के लिए जुटे हैं। पहले भी किसानों ने दिल्ली आने की कोशिश की थी। लेकिन केंद्र सरकार ने सीम पर ही रोक दिया था। सवाल है कि किसान दिल्ली किन मांगों के साथ आए हैं? जवाब है कि किसान गारंटी चाहते हैं, उनके फसलों की खरीद एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर हो इसके लिए कानून चाहते हैं।
इसके अलावा भी कुछ डिमांड हैं, जैसे-
. किसान चाहते हैं कि स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट लागू हो
. किसान अपनी लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा की व्यवस्था चाहते हैं
. किसान चाहते हैं कि उन्होंने बैंक से जो कर्ज लिया है उसे सरकार माफ कर दे
. किसान उन मुकदमों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं, पिछले आंदोलन के दौरान किसानों पर किया गया था।
. किसान इस बार मजदूरों का मुद्दा भी लेकर आए हैं, वह मनरेगा के तहत 200 दिन के रोजगार की गारंटी चाहते हैं, साथ ही दिहाड़ी 700 रुपये किए जाने की मांग करते हैं।
हालांकि प्रमुख मांग एमएसपी खरीद की गारंटी ही है। अब सवाल उठता है कि ये एमएसपी क्या है और किसान इसकी गारंटी क्यों चाहते हैं?
एमएसपी क्या है?
केंद्र सरकार फसलों की एक न्यूनतम कीमत तय करती है, उस ही MSP (Minimum Support Prices) यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य कहा जाता है। इसकी शुरुआत 60 के दशक में हुई थी।
तब देश में अनाज की किल्लत थी। सरकार ने किसानों को यह विश्वास दिलाने के लिए इसकी शुरुआत की थी कि उनका फसल बर्बाद नहीं होगा, उसे सरकार अपने द्वारा तय कीमत खरीद लेगी, चाहे मार्केट में अनाज की कितनी भी कम क्यों न हो।
इसके अलावा सरकार किसानों को प्रोत्साहित भी करना चाहती थी ताकि वह ज्यादा से ज्यादा अनाज उगाए। सबसे पहले सरकार ने गेहूं पर एमएसपी देना शुरु किया। सरकार किसानों से गेहूं खरीदती और उसे पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) के तहत गरीब जनता तक पहुंचाती। ऐसा अब भी जारी है।
सभी फसलों पर नहीं मिलती MSP?
केंद्र सरकार केवल 23 फसलों पर एमएसपी देती है। इसमें अनाज वाली सात फसलें (धान, गेहूं, बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी, जौ), ऑयलसीड की सात फसलें (मूंग, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी, तिल, नाइजर या काला तिल, कुसुम), दाल की पांच फसलें (चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर) और अन्य चार फसलें (गन्ना, कपास, जूट, नारियल ) शामिल हैं।
गन्ना को एमएसपी कवर करता है, लेकिन उसके लिए पैसा सरकार को नहीं बल्कि चीनी मिलों को देना पड़ता है। चीनी मिलें तय कीमत में कोई आनाकानी नहीं कर सकतीं क्योंकि गन्ने को आवश्यक वस्तु अधिनियम के आदेश के तहत ला दिया गया, इसलिए उचित मूल्य देना अनिवार्य होता है। इस तरह सरकार के जिम्मे 22 ही फसल आते हैं।
सरकार एमएसपी देती है, फिर किसान कानून क्यों चाहते हैं?
एमएसपी सरकार की नीति (पॉलिसी) है कानून (लॉ) नहीं, इसे सरकार संसद में बिना वोटिंग कराए, जब मर्जी रोक सकती है। अगर एमएसपी के लिए कानून बन जाएगा, तो सरकार तय फसलों को एमएसपी पर खरीदने के लिए मजबूर हो जाएगी। सरकार ऐसा नहीं चाहती है। उसके अपने कारण हैं। वो समझेंगे, पहले ये समझ लेते हैं कि अभी एमएसपी की क्या स्थिति है।
एसएसपी किसानों को नुकसान से बचाने के लिए होता है। सरकार एमएसपी तय करते वक्त इस बात का ध्यान रखती है कि किसानों को उनकी लागत का 50 प्रतिशत रिटर्न मिल जाए। लेकिन कई जगहों पर कई सरकारी मंडियां एमएसपी पर अनाज खरीदने से मना कर देती हैं। ऐसे में किसानों को एमएसपी से कम कीमत पर अनाज बेचने को मजबूर होना पड़ता है, अब इसके लिए कोई कानून तो है नहीं, इसलिए किसान अदालत भी नहीं जा सकते।
इसके अलावा कई राज्यों में एमएसपी लागू भी नहीं है, जैसे- बिहार। वहां राज्य सरकार ने पैक्स (प्राइमरी एग्रीकल्चर कॉपरेटिव सोसाइटीज) का गठन कर, उसे ही किसानों से अनाज खरीदने का जिम्मा दे रखा है। पैक्स को लेकर हमेशा शिकायतें आती हैं। किसान आरोप लगाते हैं कि उन्हें अपने फसल का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। बिचौलियों को कम कीमत पर फसल बेचनी पड़ती है।
यही वजह है कि किसान चाहते हैं कि एमएसपी के लिए कानून बना दिया जाए। सरकारी खरीद एमएसपी पर हो, जो ऐसा न करे उसे सजा मिले। साथ ही अन्य फसलों को भी एमएसपी के दायरे में लाया जाए।
सरकार एमएसपी पर कानून बनाने से क्यों बच रही है?
यदि सरकार उचित समझे तो उसके पास एमएसपी के संबंध में कानून बनाने की शक्ति है। लेकिन फिलहाल सरकार कानून लाने के मूड में नजर नहीं आ रही है, क्योंकि कानून बना देने भर काम नहीं बनेगा। उसके कार्यान्वयन के लिए कई तरह की तैयारी करनी होगी, जैसे सरकार को फूड सब्सिडी का बजट बढ़ना होगा, जिस पर पहले से ही बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो रहा है। इसके अलावा एक निश्चित बुनियादी ढांचे का निर्माण करना होगा, ताकि बड़ी मात्रा में अनाज का भंडारन हो सके।
कुछ विशेषज्ञों ने यह भी सुझाव दिया है कि एमएसपी लगाने से भारत के निर्यात पर असर पड़ सकता है, क्योंकि निजी व्यापारियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद के लिए मजबूर करना मुश्किल हो सकता है।
सरकार ने पहले भी अनाज, दाल, आलू आदि सहित कृषि और खाद्य पदार्थों के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव दिया है।
किसानों को उचित मूल्य न मिलना एक समस्या तो है…
किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। और यह कोई हवा-हवाई बात नहीं है। इसके लिए आधिकारिक डेटा मौजूद है हैं। 2021 में National Sample Survey Office (NSSO) ने 2018-19 में की गई SAS की एक सर्वे रिपोर्ट जारी किया था। सर्वे के तहत ग्रामीण भारत के किसान परिवारों, उनकी जमीन और पशुधन की स्थिति का आकलन किया था।
SAS डेटा से पता चलता है कि हर तीसरा भारतीय किसान बाजार में अपने उत्पादन के लिए मिलने वाली कीमतों से असंतुष्ट था। किसान अपनी उपज का मात्र एक चौथाई ही बेच पा रहे थे। एसएएस का डेटा भारत के खेतों और किसानों की आर्थिक स्थिति पर सांख्यिकीय जानकारी का सबसे आधिकारिक स्रोत है।
एमएसपी के अंतर्गत आने वाली फसलें भारत में कृषि उत्पादन के कुल मूल्य का लगभग एक-चौथाई हिस्सा हैं। बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद केवल धान (चावल) और गेहूं तक ही सीमित है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों से पता चलता है कि कुल चावल और गेहूं उत्पादन में खरीद का हिस्सा समय के साथ बढ़ रहा है।
2021-22 में कुल अनाज उत्पादन मूल्य में चावल और गेहूं का हिस्सा 23.6% था। ऐसे में उत्पादन ज्यादा होने के कारण इन फसलों को भी कम कीमत पर बेचे जाने के आंकड़े मिलते हैं।
अब अगर केंद्र सरकार एसपी संचालन के किसी भी सार्थक विस्तार के बारे में सोचती है तो उसे खाद्य सब्सिडी में बड़ी बढोतरी करने होगी। जबकि फूड सब्सिडी पहले ही केंद्रीय बजट में सबसे बड़े व्यय मदों में से एक है।
एमएसपी के मौजूदा सिस्टम में कई खामियां
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय कृषि का बड़ा हिस्सा संकट का सामना कर रहा है और इसका बड़ा कारण फसलों के लिए लाभकारी मूल्य नहीं मिलना है। लेकिन एमएसपी का अविवेकपूर्ण विस्तार स्थिति को और खराब कर सकता है। अपनी मौजूदा संरचना पर आलोचनात्मक नज़र डाले बिना संचालन अच्छे से अधिक बुरा कर सकता है।
वर्तमान समय में एमएसपी खरीद की प्रकृति कुछ राज्यों के लिए अधिक पक्षपाती है, जिसमें पंजाब सबसे बड़े लाभार्थियों में से एक है। असल में एसएएस डेटा से यह भी पता चलता है कि खरीद संचालन बड़ी जोत वाले किसानों के प्रति अत्यधिक पक्षपाती है। ये दोनों मौजूदा एमएसपी परिचालन में पूर्वाग्रह का परिचय देते हैं।
क्या एमएसपी से पंजाब के किसानों का नुकसान हो रहा है?
पंजाब के किसानों के एमएसपी के लिए विरोध प्रदर्शन में यह सबसे बड़ी विडंबना है। पंजाब में जमकर चावल खेती होती है, इसका अधिकांश हिस्सा एमएसपी के तहत होने वाली खरीद पर नजर रखते हुए उगाया जाता है। जबकि पंजाब में धान की खेती से कृषि पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर क्षति हुई है। राज्य में जल स्तर का गंभीर दोहन हो रहा है और मिट्टी की सेहत खराब हो रही है।
एमएसपी नहीं तो क्या?
अर्थशास्त्री मोटे तौर पर मानते हैं कि किसानों को “कीमत” के बजाय “आय” देना बेहतर है। इसका मतलब होगा कि उनके बैंक खातों में सालाना एक निश्चित राशि हस्तांतरित करना, चाहे प्रति किसान (केंद्र की पीएम-किसान सम्मान निधि के रूप में) या प्रति एकड़ (तेलंगाना सरकार की रायथु बंधु) के आधार पर। प्रत्यक्ष आय सहायता योजनाएं बाजार को बिगाड़ने वाली नहीं हैं और इससे सभी किसानों को लाभ होता है, भले ही वे कोई भी फसल कितनी भी मात्रा में उगाते हों और किसी को भी किसी भी कीमत पर बेचते हों।
हालांकि, सभी को समान पैसा दिए जाने का दूसरा पक्ष यह है कि इससे वास्तविक उत्पादक किसानों की उपेक्षा होगी, जो कृषि में अधिक संसाधन, समय और मेहनत लगाते हैं। जिनका मुख्य पेशा ही कृषि है।
ये किसान, उन लोगों से अलग होते हैं, जो खेती को एक आकस्मिक आजीविका का स्रोत मानते हैं। ये किसान केवल उन फसलों के लिए किसी प्रकार के आश्वासन (उचित मूल्य पर खरीद के संदर्भ में) की मांग करेंगे है जो वे अभी बो रहे हैं और कुछ महीनों में काट लेंगे।
पूरी तरह कृषि पर निर्भर किसान अधिक जोखिम (मौसम, कीटों और बीमारियों से) उठाते हैं। ऐसे में दो अलग-अलग तरह के किसानों को एक समान पैसा दिया जाना, न्याय संगत नहीं लगता है। ऐसे में एमएसपी गारंटी शायद एक अनुचित मांग नहीं लगती है, लेकिन विशेषज्ञों की राय बँटी हुई है।