अर्जुन सेनगुप्ता

भारत के 77वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 15 अगस्त की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के लाल किला से तिरंगा फहराया और राष्ट्र को संबोधित किया। जवाहरलाल नेहरू ने सबसे पहले इस परंपरा की शुरुआत 1947 में की थी, हालांकि उनका संबोधन आधिकारिक तौर पर सत्ता सौंपे जाने के एक दिन बाद 16 अगस्त को हुआ था। उन्होंने अपने इस भाषण में खुद को भारत का प्रथम सेवक बताया था।

पिछले कुछ वर्षों में लाल किला भारत के स्वतंत्रता दिवस समारोह का एक अभिन्न अंग बन गया है, जो अक्सर राष्ट्र और सरकार के मूड को दर्शाता है। लेकिन इस समारोह के लिए लाल किला को ही क्यों चुना गया? इसे समझने के लिए सबसे पहले इस इतिहास को संक्षिप्त रूप में समझ लेते हैं कि दिल्ली भारत में सत्ता का केंद्र कैसे बनी।

‘हिन्दुस्तान की राजधानी’

दिल्ली सल्तनत (1206-1506) ने दिल्ली को राजधानी बनाई, जहां से उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से पर शासन किया जाता था। 16वीं सदी में मुगल वंश के संस्थापक बाबर (1483-1530) ने सबसे पहले दिल्ली को ‘संपूर्ण हिंदुस्तान की राजधानी’ कहा था। हालांकि अकबर (1542-1605) के शासनकाल में मुगलों ने कुछ समय के लिए अपनी राजधानी आगरा स्थानांतरित कर दी थी, फिर भी उन्हें दिल्ली के शासकों के रूप में देखा जाता रहा।

अंततः शाहजहां (1592-1666) ने अपने कार्यकाल में 1648 में शाहजहांनाबाद (जिसे आज हम पुरानी दिल्ली के नाम से जानते हैं) की स्थापना की और दिल् कोली एक बार फिर मुगलों की राजधानी बनाई। मुगल शाहजहानाबाद के किलेबंद गढ़ – जिसे लाल किले के नाम से अधिक जाना जाता है – से 1857 तक शासन करना जारी रखा। यहां तक कि जब उनकी शक्ति कम हो गई, तब भी वे भारत के प्रतीकात्मक शासकों के रूप में पहचाने जाते रहे, और ऐसा आंशिक रूप से दिल्ली के साथ उनके संबंधों के कारण था।

शायद इसका सबसे अच्छा उदाहरण 1857 का विद्रोह है। विद्रोह के बाद विद्रोही तुरंत दिल्ली चले गए और वृद्ध मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर (1775-1862) को अपना राजा घोषित कर दिया। उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए दिल्ली का महत्व बहुत कम था और यहां बहुत कम यूरोपीय लोग रहते थे। लेकिन विद्रोहियों के लिए, यह अभी भी स्वदेशी सत्ता का सबसे मजबूत प्रतीक था। अंतत: दिल्ली के पतन के विद्रोहियों को लंबे समय के लिए खामोश कर दिया।

लाल किले पर पड़ी ब्रिटिश शासन की छाप

विद्रोहियों से दिल्ली पर कब्जा करने के बाद, अंग्रेजों ने शुरू में पूरे शहर (शाहजहांनाबाद) को तहस-नहस करने की योजना बनाई, उनका मुख्य उद्देश्य शहर से मुगल साम्राज्य की स्मृति को मिटाना था। उन्होंने दरियागंज के पास अकबराबादी मस्जिद या चांदनी चौक के पास हलचल भरे उर्दू बाज़ार जैसी खूबसूरत मुगल इमारतों को नष्ट कर दिया।

हालांकि उन्होंने लाल किला को पूरी तरह से ध्वस्त नहीं किया लेकिन इसकी सारी शाही महिमा छीन ली। बहुमूल्य कलाकृतियां और शाही खजाना (1857 में जो बचा था) लूट लिया गया। इसकी कई आंतरिक संरचनाओं को ब्रिटिश संरचनाओं से बदलने के लिए ध्वस्त कर दिया गया।

अनुमान के अनुसार, लाल किले की मूल आंतरिक संरचनाओं का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा नष्ट कर दिया गया था, उनकी जगह ब्रिटिश इमारतों ने अपने सैनिकों को रखने और उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए निर्माण किया था। महल को ब्रिटिश छावनी में और प्रसिद्ध दीवान-ए-आम को अस्पताल में बदल दिया गया।

आज हम जिस लाल किले को देखते हैं, उस पर ब्रिटिश शाही सत्ता की मुहर लगी हुई है, साथ ही वह मुगल साम्राज्य की भव्यता के अवशेष के रूप में भी खड़ा है।

दिल्ली को बनाया सत्ता का केंद्र

1857 के बाद के वर्षों में अंग्रेजों ने व्यवस्थित रूप से दिल्ली को एक छोटे प्रांतीय शहर में बदल दिया। साथ ही यह शहर अभी भी भारत में सत्ता का एक प्रभावशाली प्रतीक बना हुआ है। दिल्ली को अंग्रेजों ने भी भुनाया, विशेष रूप से दिल्ली दरबार (1877, 1903, 1911) के दौरान। इन भव्य समारोहों ने ब्रिटिश सम्राट को भारत के सम्राट के रूप में घोषित किया। अंग्रेजों ने इन समारोहों के दौरान उपमहाद्वीप के रियासतों के शासकों को ब्रिटिश क्राउन के सामने पेश होने के लिए दिल्ली में आमंत्रित किया।

अंततः अंग्रेजों ने 1911 में अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने का निर्णय लिया और एक भव्य नए शहर का निर्माण किया, जिसका काम 1930 में पूरा हुआ।

नई दिल्ली में स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर के प्रोफेसर सुओरो डी जोर्डर ने अपने लेख ‘नई दिल्ली: इंपीरियल कैपिटल टू कैपिटल ऑफ वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ (2006) में बताया है कि एक तो दिल्ली देश के केंद्र में है और यहां से पूरे भारत में कनेक्टिविटी है। इसके अलावा अंग्रेजों के दिमाग में वह प्रतीकात्मक कहावत भी था कि ‘जो दिल्ली पर राज करेगा है वही भारत पर राज करेगा’

लाल किले को फिर से पाना, भारत को पुनः प्राप्त करना था

सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में उनकी सेना INA बर्मा सीमा से भारत की ओर बढ़ी थी। इस काम उनका साथ जापानी सेना और नागरिक स्वयंसेवकों ने दिया था। दिसंबर, 1943 तक अंडमान के द्वीपों पर आईएनए का कब्जा भी हो गया था। आईएनए और जापानी सेना ने मिलकर अंग्रेजों को भगा दिया था। लेकिन एक विमान दुर्घटना में बोस की मौत के बाद 1945 और 1946 के बीच आईएनए के वरिष्ठ अधिकारियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। अंग्रेजों ने जापानियों को खदेड़ दिया और अंडमान पर फिर से ब्रिटिश शासन लागू हो गया।

अंग्रेजों ने बोस की सेना पर लाल किला में मुकदमा चलाया। इससे देशवासियों में आईएनए के प्रति सहानुभूति की लहर दौड़ गई। अंग्रेजों की इस कार्रवाई ने लाल किले को भारतीय जनता के मन में शक्ति और प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में एक बार फिर से स्थापित कर दिया। शायद इन्हीं वजहों से नेहरू ने 1947 में लाल किले पर झंडा फहराने का फैसला किया।

जैसा कि इतिहासकार स्वप्ना लिडल ने 2021 में लिखा था: “स्वतंत्रता के आगमन के साथ, यह आवश्यक था कि लाल किले का स्थान, जिस पर ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने अपनी शक्ति और ताकत अंकित करने की कोशिश की थी, प्रतीकात्मक रूप से भारतीय लोगों के लिए पुनः प्राप्त किया जाए।”