अर्जुन सेनगुप्ता
फील्ड मार्शल सैम होरमूज़जी फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ (1914-2008) भारतीय सैन्य इतिहास में सबसे प्रसिद्ध शख्सियतों में से एक हैं। सैम मानेकशॉ की जिंदगी पर बनी फिल्म ‘सैम बहादुर’ सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है।
अपनी बहादुरी और कॉमेडी के लिए जाने जाने वाले मानेकशॉ का मिलिट्री करियर लगभग चार दशकों था। उस दौरान वह पांच युद्धों में शामिल हुए। द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर पाकिस्तान के खिलाफ 1971 के युद्ध तक, उन्होंने भारतीय सेना को निर्णायक जीत दिलाई। हालांकि, यदि मानेकशॉ ने 1947 में पाकिस्तान को चुनने का फैसला लिया होता तो शायद इतिहास अलग होता। यहां हम उसी फैसले की कहानी जानेंगे:
1947 में सिर्फ जमीन का बंटवारा नहीं हुआ था
1947 में भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ जमीन का बंटवारा नहीं हुआ था, रेलवे से लेकर सरकारी खजाने तक, सिविल सेवाओं से लेकर सरकारी संपत्ति तक, कुर्सियों और मेजों तक, सब कुछ विभाजित हुआ था।
1947 में लगभग 400,000 सैनिकों वाली ब्रिटिश भारतीय सेना भी विभाजित हो गई। सेना की सभी संपत्तियों और स्वदेशी कर्मियों को दोनों देशों के बीच विभाजित कर दिया गया। भारत के हिस्से लगभग 260,000 सैनिक आए। बाकी पाकिस्तान के पास गए। 1947 की अन्य घटनाओं की तरह ही यह भी एक जटिल और हिंसक प्रक्रिया साबित हुई। सेना के यूनिट्स धार्मिक आधार पर बंट गए थे।
सैम मानेकशॉ के पास था देश चुनने का विकल्प
सेना में शामिल सभी अधिकारियों के पास देश चुनने का विकल्प नहीं था। इतिहासकार ब्रायन लैपिंग ने एंड ऑफ एम्पायर (1985) में लिखा है, “कुछ अधिकारियों को अपनी पसंद बताने के लिए एक फॉर्म मिला। हालांकि अधिकांश हिंदुओं और सिखों के पास कोई विकल्प नहीं था। वे पाकिस्तान नहीं जाने वाले थे। लेकिन मुसलमानों को यह विकल्प दिया गया था, क्योंकि उनके घर भारत में थे… भारत ने धर्मनिरपेक्ष देश होना चुना था, ऐसे में देश में धर्मनिरपेक्ष सेना की आवश्यकता थी। जो लोग भारत की धर्मनिरपेक्षता को लेकर आश्वस्त थे, उन्होंने भारत को चुना। ईसाई और पारसी सैनिकों के पास भी इसी तरह का विकल्प था।”
सैम मानेकशॉ उस समय एक मेजर थे। वह अमृतसर में पैदा हुए एक पारसी थे। हालांकि उनका परिवार मूल रूप से बॉम्बे (अब मुंबई ) से था। शेरवुड कॉलेज में पढ़ने के लिए नैनीताल भेजे जाने से पहले उन्होंने अपना बचपन अमृतसर शहर में बिताया था। सैमा का कोर यूनिट 12वीं फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट था, जो बंटवारे में पाकिस्तानी सेना के हिस्से चला गया था। इस प्रकार मानेकशॉ के सामने एक विकल्प था।
मानेकशॉ ने ठुकरा दिया जिन्ना का ऑफर
दरअसल, पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने खुद मानेकशॉ से पाकिस्तानी सेना में शामिल होने का अनुरोध किया था। हालांकि भारत के लिए यह अच्छा ही हुआ कि मानेकशॉ ने जिन्ना का ऑफर ठुकरा दिया। हनादी फल्की ने ‘Field Marshal Manekshaw’ नाम से सैम बहादुर की जीवनी लिखी है। इस जीवनी में कर्नल तेजा सिंह औलख (तब एक मेजर) का एक बयान मिलता है। वह कहते हैं, “जिन्ना का ऑफर स्वीकार कर लेने पर सैम मानेकशॉ की पाकिस्तानी सेना में तेजी से पदोन्नति होती, लेकिन उन्होंने भारत में रहना पसंद किया।”
ब्रिटिश भारतीय सेना के शीर्ष नेतृत्व के एक बड़े हिस्से में ब्रिटिश अधिकारी शामिल थे। इस प्रकार 1947 में भारत और पाकिस्तान दोनों की सेनाओं में शीर्ष पदों पर एक खालीपन था। पाकिस्तान के लिए परेशानी ज्यादा थी क्योंकि ब्रिटिश इंडियन आर्मी में ऑफिसर पद पर अंग्रेजों के अलावा सबसे अधिक हिंदू या सिख थे, जो भारत के हिस्से थे। नतीजतन, युवा पाकिस्तानी अधिकारियों की रैंक तेजी से बढ़ाई गई।
आजाद भारत में मानेकशॉ को पहले थोड़े समय के लिए 16वीं पंजाब रेजिमेंट में ट्रांसफर किया गया। बाद में लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में 5वीं गोरखा राइफल्स में ट्रांसफर किया गया। हालांकि, वह गोरखा सैनिकों के साथ काम नहीं कर पाए, क्योंकि उन्हें 1947-48 के कश्मीर युद्ध के दौरान सेना मुख्यालय में जिम्मेदारी संभालनी थी। उन्हें मिलिट्री ऑपरेशन के लिए डायरेक्शन देने का काम मिला था।
सेवानिवृत्ति के बाद एक बार फील्ड मार्शल मानेकशॉ से 1947 में उनके फैसले के बारे में पूछा गया था। उन्होंने मजाक में कहा था, “जिन्ना ने मुझे 1947 में पाकिस्तानी सेना में शामिल होने के लिए कहा था। अगर मैं ऐसा करता, तो आपका भारत हार (1971 के युद्ध में) जाता।”