राजाजी के नाम से मशहूर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी स्वतंत्र भारत के पहले और आखिरी भारतीय गवर्नर जनरल थे। स्वतंत्रता से पहले के दौर में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य और महात्मा गांधी के वफादार रहे। लेकिन 1957 में कांग्रेस की नीतियों से निराश होकर उससे अलग हो गये और 1959 में ‘स्वतंत्र पार्टी’ की स्थापना की। 15 मई, 1961 को सी. राजगोपालाचारी ने उद्योगपति जेआरडी टाटा को पत्र लिखकर उनसे नवगठित स्वतंत्र पार्टी का समर्थन करने के लिए कहा था।
कांग्रेस को फंड करती थी टाटा
राजाजी की छवि रूढ़िवादी देशभक्त की थी। वह अपनी पार्टी के माध्यम से कांग्रेस को टक्कर देना चाहते थे। उनका मानना था कि कांग्रेस राजनीतिक वास्तविकताओं के प्रति असंवेदनशील है, साथ ही पार्टी भीतर एक ही व्यक्ति (जवाहरलाल नेहरू) का प्रभुत्व है।
राजाजी को पता था कि टाटा परिवार लंबे समय से कांग्रेस को वित्त पोषित कर रहा है। फिर भी उन्होंने जेआरडी टाटा को पत्र लिखकर आर्थिक मांगी। इतिहासकार रामचंद्र गुहा हिंदुस्तान टाइम्स में लिखे एक आर्टिकल में बताते हैं कि राजाजी ने टाटा को लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की भूमिका का महत्व समझाते हुए लिखा, “यदि टाटा कांग्रेस के अलावा स्वतंत्रता को भी वित्त पोषित करते हैं, तो यह एक देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य होगा, क्योंकि कोई भी लोकतंत्र मजबूत विपक्ष के अभाव में अच्छा शासन नहीं करता है…।”
टाटा ने नेहरू को लिखा पत्र
लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की भूमिका वाली बात काम कर गई। जेआरडी टाटा ने स्वतंत्र पार्टी को फंड देने का फैसला किया। साथ ही टाटा ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सीधे पत्र लिखकर कांग्रेस पार्टी में ‘एक जिम्मेदार और संगठित लोकतांत्रिक विपक्ष की पूर्ण अनुपस्थिति’ पर अपनी चिंता व्यक्त की।
टाटा ने नेहरू को लिखा, “मैं उनमें से एक हूं, जो मानते हैं कि आजादी के बाद हम जिस एकल पार्टी शासन के तहत रह रहे हैं वह अब तक देश के लिए अच्छी बात है। इससे देश को स्थिरता मिली है। देश की ऊर्जा और संसाधनों को व्यवस्थित तरह से विकास पर केंद्रित किया गया है। यह एक मजबूत और एक पार्टी के लगातार शासन के बिना असंभव होता। लेकिन आप भी यह मानेंगे कि अगर एकल पार्टी का प्रभुत्व जारी रहा तो भविष्य में परेशानी और जोखिम पैदा हो सकती है। कोई भी राजनीतिक दल और उसका प्रशासन कितना भी अच्छा क्यों न हो, यह अनिवार्य है कि लोग अंततः बदलाव चाहेंगे। देश के राजनीतिक जीवन में कुछ तत्व कांग्रेस पार्टी की कुछ नीतियों से असहमत होंगे और अपने विचारों को आजमाने के तरीके तलाशेंगे।”
जेआरडी टाटा ने बताया कि मजबूत विपक्ष के अभाव में कांग्रेस का विरोध करने वाले देशभक्त या तो महत्वहीन हो जाएंगे, उनकी उनकी सेवाएं देश के लिए ख़त्म हो जाएंगी या वे कम्युनिस्ट पार्टी या दूसरी उग्रवादी पार्टियों की तरफ मुड़ जाएंगे। इस प्रकार टाटा ने निष्कर्ष निकाला था कि ‘देश हित में यह अपरिहार्य है कि संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी को विस्थापित करने का प्रयास किया जाना चाहिए।’
इस भूमिका के लिए सबसे उपयुक्त स्वतंत्र पार्टी थी, क्योंकि व्यक्तिगत अधिकारों और निजी उद्यम को बढ़ावा देने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के अलावा, इस पार्टी के नेता ‘दृष्टिकोण में रूढ़िवादी होते हुए भी, प्रतिक्रियावादी या सांप्रदायिक या अति दक्षिणपंथी नहीं हैं।’ और इसलिए जेआरडी ने नेहरू से कहा, “टाटा ने फैसला किया है कि वह कांग्रेस के चुनाव फंड में योगदान देने के अलावा स्वतंत्र पार्टी के फंड में भी योगदान देगी, लेकिन कम पैमाने पर।”
नेहरू का आया तुरंत जवाब
नेहरू ने लगभग तुरंत ही जेआरडी को जवाब दिया। नेहरू का मानना था कि ‘जब तक कांग्रेस की नीतियां भारत के लोगों के लिए फायदेमंद हैं, मुझे उनका पालन करना जारी रखना चाहिए।’ लेकिन फिर नेहरू के सामने पार्टी फंडिंग का सवाल था।
उन्होंने टाटा को लिखा, ‘बेशक, आप स्वतंत्र पार्टी की किसी भी तरह से मदद करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि आपकी यह आशा कि स्वतंत्र पार्टी एक मजबूत विपक्ष के रूप में उभरेगी, उचित है। मुझे लगता है कि अगले आम चुनाव में उसे निराशा होगी। ऐसा लगता है कि इसकी न तो भारत की जनता और न ही बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से के बीच कोई आधार है।”
जाहिर है नेहरू ने जेआरडी टाटा को ना सिर्फ विनम्रता से जवाब दिया बल्कि अपनी नीतियों का बचाव करते हुए उनके फैसले का सम्मान भी किया।
राजाजी के बारे में
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जन्म 10 दिसंबर, 1878 को मद्रास प्रेसीडेंसी के सेलम जिले में हुआ था। पिता का नाम वेंकट अयंगर और मां का नाम सिंगरम्मा अयंगर था। 1899 में उन्होंने लॉ की परीक्षा पास की और सेलम से वकालत शुरू की। जब राजगोपालचारी सेलम में प्रैक्टिस कर रहे थे, उस दौरान उन्हें एक वकील के बारे में पता चला जो दक्षिण अफ्रीका में सविनय अवज्ञा के विचारों का प्रचार कर रहा था। ये महात्मा गांधी की चर्चा थी। 1913 में राजगोपालाचारी ने अपने खर्च पर गांधीजी के जेल अनुभव को पैम्फलेटों पर छपवाया। 1919 में राजगोपालाचारी की पहली बार गांधी से मद्रास (अब चेन्नई) में मुलाकात हुई थी। उन्होंने गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया। 1920 में उन्हें वेल्लोर में दो साल की जेल भी हुई।