सत्ताधारी भाजपा के अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा (NDA) और विपक्ष ने अपने-अपने राष्ट्रपति उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। मंगलवार की दोपहर कांग्रेस, टीएमसी और एनसीपी समेत अन्य विपक्षी दलों ने यशवंत सिन्हा को विपक्ष का साझा उम्मीदवार घोषित किया। वहीं NDA के तरफ से द्रौपदी मुर्मू का नाम आगे किया गया।
पिछले राष्ट्रपति चुनाव में रामनाथ कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने ‘दलित राष्ट्रपति’ का संदेश दिया था। इस बार अगर मुर्मू को जीत मिलती है तो वो देश की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति होंगी। जाहिर है इसका पूरा क्रेडिट एनडीए और खासकर भाजपा के हिस्से जाएगा। भाजपा पर ये आरोप लगते रहे हैं कि वो वंचित समुदायों से ऐसे लोगों को ढूंढ कर लाती है, जो अपने समुदाय के हित में सरकार के खिलाफ बोल नहीं पाते।
द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा के बाद भी ऐसे ही आरोप लग रहे हैं। हालांकि भाजपा नेता अमित शाह ने अपने एक ट्वीट में मुर्मू के काम को बताया है। शाह ने लिखा है, ”द्रौपदी मुर्मू जी ने जनजातीय समाज में शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने व जनप्रतिनिधि के रूप में लम्बे समय तक जनसेवा करते हुए सार्वजनिक जीवन में अपनी विशिष्ठ पहचान बनाई है। इस गरिमामई पद की प्रत्याशी बनने पर उनको शुभकामनाएं देता हूँ व मुझे विश्वास है कि वो निश्चित रूप से जीतेंगी।”
मुर्मू ने आदिवासियों के लिए क्या किया है?
द्रौपदी मुर्मू के राजनीतिक करियर की शुरुआत तो 1997 में ही हो जाती है लेकिन बड़ा मौका सन् 2000 में मिला था। तब भाजपा ने उन्हें रायरंगपुर विधानसभा सीट से टिकट दिया था। इस चुनाव में जीतकर मुर्मू नवीन पटनायक के मंत्रिमंडल में स्वतंत्र प्रभार की राज्यमंत्री बनीं थी। पहले दो साल में वाणिज्य और परिवहन विभाग देखा, अगले दो साल तक पशुपालन और मत्स्य विभाग संभाला। यानी मंत्री के तौर पर आदिवासियों के लिए काम करने का अनुभव द्रौपदी मुर्मू के पास नहीं है।
मोदी सरकार आने के बाद साल 2015 में द्रौपदी मुर्मू को झारखंड का राज्यपाल बना दिया गया। मुर्मू से पहले झारखंड के राज्यपाल के रूप में किसी आदिवासी महिला ने पद नहीं संभाला था। राज्यपाल के रूप में मुर्मू को सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों से बराबर सम्मान और सौहार्द प्राप्त हुआ। यही वजह है कि कार्यकाल खत्म होने के बाद तक मुर्मू इस पद पर बनी रही थीं। राज्यपाल का कार्यकाल पांच साल का होता है लेकिन मुर्मू छह साल, एक महीना और 18 दिन तक इस पद पर रही थीं।
राज्यपालों पर केंद्र की तरफ झुके रहने का आरोप लगता रहा है लेकिन मुर्मू अपने कार्यकाल के दौरान तटस्थ रहने के लिए जानी गईं। एक मौका ऐसा भी आया जब द्रौपदी मुर्मू ने भाजपा की रघुबर दास सरकार को नसीहत देते हुए, उनके विधेयक को बिना लाग-लपेट लौटा दिया। इस तरह का फैसले उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार के दौरान भी लिए।
लौटा दिया था सीएनटी-एसपीटी एक्ट संशोधन विधेयक
साल 2017 में भाजपा की रघुबर दास सरकार सीएनटी-एसपीटी एक्ट संशोधन विधेयक लेकर आयी थी। इसके विधेयक के तहत सरकार आदिवासियों की जमीनों की रक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) में बदलाव करना चाहती थी। भारी विरोध और विपक्ष के वॉकआउट के बावजूद रघुबर सरकार ने सदन में विधेयक पास करवा लिया।
विधेयक को कानून में बदलने के लिए राज्यपाल से होकर गुजरना होता है। सरकार द्वारा सदन में पास कराया गया विधेयक तत्कालीन राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के पास पहुंचा। मुर्मू ने बिना दस्तखत विधेयक को सरकार को वापस कर दिया। साथ ही सरकार से सवाल किया कि इस विधेयक से आदिवासियों को क्या फायदा होगा। सरकार ने जवाब नहीं दिया और इस तरह वह विधेयक कभी कानून नहीं बन पाया। राज्यपाल के फैसले से आदिवासी समुदाय बहुत खुश हुआ था और मुर्मू का धन्यवाद किया था। मीडिया से बात करते हुए मुर्मू ने बताया था कि ”विधेयक के खिलाफ करीब 200 आपत्तियां प्राप्त हुई थीं, ऐसे में दस्तखत करने का सवाल नहीं उठता।” बताया जाता है कि इस मामले को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुबर दास ने मुर्मू से मुलाकात भी की थी लेकिन उन्होंने अपना फैसला नहीं बदला।