पश्चिम बंगाल में हिन्दू कैलेंडर के अनुसार नवरात्रि के षष्ठी से लेकर विजयदशमी तक दुर्गा पूजा का त्योहार मनाया जाता है। दुर्गोत्सव पर मूर्ति पूजा की परम्परा रही है। उत्सव में भव्य पंडाल के निर्माण और कलाओं की अन्य विधाओं की भी झलक देखने को मिलता है। आकर्षण का मुख्य केंद्र दुर्गा की मूर्ति होती है, जिसे लेकर कई तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। एक मान्यता वेश्यालय से भी जुड़ी है।

वेश्यालय की मिट्टी से बनाई जाती है प्रतिमा

बंगाल में महिला यौन कर्मियों का दुर्गा पूजा से बहुत ही अनोखा नाता है। यह संबंध इतना अटूट है कि दुर्गा पूजा के लिए बनाई जाने वाली मूर्तियां देह व्यापार करने वाली महिलाओं के योगदान के बिना पूरा ही नहीं सकता है। एक प्रचलित मान्यता है कि देवी की मूर्ति के निर्माण में पवित्र नदियों की मिट्टी, विशेष वनस्पति, गोबर, धान के छिलके, जूट के ढांचे, लकड़ी, गोमूत्र, सिंदूर और जल के साथ निषिद्धो पाली का रज मिलाया जाता है।

अब सवाल उठता है कि निषिद्धो पाली का रज क्या होता है? निषिद्ध यानी वर्जित को बंगाली उच्चरण में निषिद्धो कहा जाता है। पाली मतलब होता है – क्षेत्र। जैसे कबड्डी के खेल में पाला बांटा जाता है। विरोधी टीम के पाले में पकड़े जाने पर प्वाइंट कम जाता है। इसी पाला या पाले को पाली भी कहा जाता है। तो निषिद्धो पाली का मतलब हुआ- वर्जित क्षेत्र। रज का अर्थ होता है- धूल या मिट्टी। इस तरह ‘निषिद्धो पाली का रज’ का अर्थ हुआ वर्जित क्षेत्र की मिट्टी। इस मामले में वर्जित क्षेत्र का संबंध, उन इलाकों से हैं जहां वेश्यावृत्ति होती है।

तो मान्यता यह है कि दुर्गा की मूर्ति को बनाने में वेश्यालय के बाहर पड़ी मिट्टी का इस्तेमाल जरूरी होता है। ऐसा नहीं करने पर मूर्ति अधूरी मानी जाती है। इसलिए दुर्गा पूजा से पहले पश्चिम बंगाल में स्थित एशिया के सबसे बड़े वेश्यालय सोनागाछी में से मूर्ति के लिए मिट्टी ले जायी जाती है।

क्यों है ऐसी मान्यता?

इसे लेकर कई तरह कहानियां प्रचलित हैं। हालांकि सामान्य रूप से यही माना जाता है कि जब भी कोई व्यक्ति किसी वेश्यालय के भीतर जाता है तो वह अपनी सारी पवित्रता वेश्यालय के बाहर छोड़ देता है। ऐसे में वहां की मिट्टी पवित्र होती है।