Vande Mataram: राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ के 150 साल पूरे होने पर प्रधानमंंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार को राजधानी नई दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में साल भर चलने वाले समारोह की शुरुआत की। इस कार्यक्रम में पीएम नरेंद्र मोदी एक स्मारक डाक टिकट और सिक्का भी जारी किया। ‘वंदे मातरम’ को लेकर कार्यक्रम अगले साल 7 नवंबर 2026 तक आयोजित किए जाएंगे।
‘वंदे मातरम’ पहली बार साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में 7 नवंबर 1875 को प्रकाशित हुआ। बाद में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने इसे अपने अमर उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल किया, जो 1882 में प्रकाशित हुई। साल 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने पहली बार भारत के बाहर स्टटगार्ट, बर्लिन में तिरंगा झंडा फहराया था। उस झंडे पर वंदे मातरम लिखा हुआ था।
राष्ट्रवादी चिंतन में मील का पत्थर मानी जाती है ‘वंंदे मातरम की रचना’
वंदे मातरम की रचना को राष्ट्रवादी चिंतन में मील का पत्थरमाना जाता है। यह मातृभूमि के प्रति भक्ति और आध्यात्मिक आदर्शवाद के मेल का प्रतीक है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपनी लेखनी के जरिए, न सिर्फ बंगाली साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि भारत के शुरुआती राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए बुनियादी वैचारिक सिद्धांत भी रखे। वंदे मातरम में उन्होंने देश को मातृभूमि को माँ के रूप में देखने का नजरिया दिया।
‘वंदे मातरम’ – प्रतिरोध का गीत
अक्टूबर 1905 में, उत्तरी कलकत्ता में मातृभूमि को एक मिशन और धार्मिक जुनून के तौर पर बढ़ावा देने के लिए एक ‘बंदे मातरम संप्रदाय’ की स्थापना की गई थी। इस संप्रदाय के सदस्य हर रविवार को ‘वंदे मातरम’ गाते हुए प्रभात फेरियाँ निकालते थे और मातृभूमि के समर्थन में लोगों से स्वैच्छिक दान भी लेते थे। इस संप्रदाय की प्रभात फेरियों में कभी-कभी रवींद्रनाथ टैगोर भी शामिल होते थे।
20 मई 1906 को, बारीसाल (जो अब बांग्लादेश में है) में एक अभूतपूर्व वंदे मातरम जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में में दस हजार से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। हिंदू और मुसलमान दोनों ही शहर की मुख्य सड़कों पर वंदे मातरम के झंडे लेकर मार्च कर रहे थे।
1906 में शुरू हुआ दैनिक ‘बंदे मातरम’ का संपादन
अगस्त 1906 में, बिपिन चंद्र पाल के संपादन में ‘बंदे मातरम’ नाम का एक अंग्रेजी दैनिक शुरू हुआ, जिसमें बाद में श्री अरबिंदो संयुक्त संपादक के रूप में शामिल हुए। अपने तेज और प्रभावशाली संपादकीय लेखों के जरिए यह अखबार भारत को जगाने का एक सशक्त माध्यम बन गया, जिसने स्वावलंबन, एकता और राजनीतिक चेतना का संदेश पूरे भारत के लोगों तक फैलाया। निडरता से राष्ट्रवाद का प्रचार करते हुए, युवा भारतीयों को औपनिवेशिक गुलामी से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करते हुए, ‘बंदे मातरम’ दैनिक राष्ट्रवादी चिंतन को जाहिर करने और लोगों की राय जुटाने का एक बड़ा मंच बन गया।
जब ‘वंदे मातरम’ से घबराई अंग्रेज सरकार
गाने और नारे दोनों के तौर पर ‘वंदे मातरम’ के बढ़ते प्रभाव से घबराकर अंग्रेज सरकार ने इसके प्रसार को रोकने के लिए कड़े कदम उठाए। नए बने पूर्वी बंगाल प्रांत की सरकार ने स्कूलों और कॉलेजों में ‘वंदे मातरम’ गाने या बोलने पर रोक लगाने वाले परिपत्र जारी किए। शैक्षणिक संस्थानों को मान्यता रद्द करने की चेतावनी दी गई, और राजनीतिक आंदोलन में हिस्सा लेने वाले छात्रों को सरकारी नौकरी से निकालने की धमकी दी गई।
नवंबर 1905 में, बंगाल के रंगपुर के एक स्कूल के 200 छात्रों में से हर एक पर 5-5 रुपये का जुर्माना लगाया गया, क्योंकि वे वंदे मातरम गाने के दोषी थे। रंगपुर में, बंटवारे का विरोध करने वाले जाने-माने नेताओं को स्पेशल कांस्टेबल के तौर पर काम करने और वंदे मातरम गाने से रोकने का निर्देश दिया गया।
नवंबर 1906 में, धुलिया (महाराष्ट्र) में हुई एक विशाल सभा में वंदे मातरम के नारे लगाए गए। 1908 में, बेलगाम (कर्नाटक) में, जिस दिन लोकमान्य तिलक को बर्मा के मांडले भेजा जा रहा था, वंदे मातरम गाने के खिलाफ एक मौखिक आदेश के बावजूद ऐसा करने के लिए पुलिस ने कई लड़कों को पीटा और कई लोगों को गिरफ्तार किया।
कैसे बढ़ते भारतीय राष्ट्रवाद का नारा बन गया ‘वंदे मातरम’?
- 1896 में कांग्रेस के अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘वंदे मातरम’ गाया था।
- 1905 के उथल-पुथल वाले दिनों में, बंगाल में विभाजन विरोधी और स्वदेशी आंदोलन के दौरान, वंदे मातरम गीत और नारे की अपील भी बहुत शक्तिशाली हो गई थी। उसी साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वाराणसी अधिवेशन में, ‘वंदे मातरम’ गीत को पूरे भारत के अवसरों के लिए अपनाया गया।
- अप्रैल 1906 में, नए बने पूर्वी बंगाल प्रांत के बारीसाल में बंगाल प्रांतीय सम्मेलन के दौरान, ब्रिटिश हुक्मरानों ने वंदे मातरम के सार्वजनिक नारे लगाने पर रोक लगा दी और आखिरकार सम्मेलन पर ही रोक लगा दी। आदेश की अवहेलना करते हुए, प्रतिनिधियों ने नारा लगाना जारी रखा और उन्हें पुलिस के भारी दमन का सामना करना पड़ा।
- मई 1907 में, लाहौर में, युवा प्रदर्शनकारियों के एक समूह ने औपनिवेशिक आदेशों की अवहेलना करते हुए जुलूस निकाला और रावलपिंडी में स्वदेशी नेताओं की गिरफ्तारी की निंदा करने के लिए वंदे मातरम का नारा लगाया। इस प्रदर्शन को पुलिस के क्रूर दमन का सामना करना पड़ा, फिर भी युवाओं द्वारा निडरता से नारे लगाना देश भर में फैल रही प्रतिरोध की बढ़ती भावना को दर्शाता है।
- 27 फरवरी 1908 को, तूतीकोरिन (तमिलनाडु) में कोरल मिल्स के लगभग हज़ार मज़दूर स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी के साथ एकजुटता दिखाते हुए और अधिकारियों की दमनकारी कार्रवाइयों के खिलाफ हड़ताल पर चले गए। वे देर रात तक सड़कों पर मार्च करते रहे, विरोध और देशभक्ति के प्रतीक के तौर पर वंदे मातरम के नारे लगाते रहे।
- जून 1908 में, लोकमान्य तिलक के मुकदमे की सुनवाई के दौरान हज़ारों लोग बॉम्बे पुलिस कोर्ट के बाहर जमा हुए और वंदे मातरम का गान करते हुए एकजुटता प्रदर्शित की। बाद में, 21 जून 1914 को, तिलक के रिहा होने पर पुणे में उनका ज़ोरदार स्वागत हुआ, और उनके स्थान ग्रहन करने के काफी देर बाद तक भीड़ वंदे मातरम के नारे लगाती रही।
(इनपुट – पीआईबी)
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