महाराष्ट्र के हालिया सियासी घमासान के बीच शिवसेना के बागियों ने लगातार हिन्दुत्व के मुद्दे को उठाया। वो शिवसेना को वैचारिक रूप से भाजपा के नजदीक बताते रहे। उनके मुताबिक, भाजपा और शिवसेना दोनों हिन्दुत्व की राजनीति करते हैं इसलिए उन्हें साथ रहना चाहिए था। भाजपा की विचारधारा उसके पैतृक संगठन आरएसएस की वजह से हमेशा स्पष्ट रही है। आरएसएस के विचारकों के लेख और किताब इस बात के गवाह हैं कि उनकी विचारधारा हिन्दुत्व है। उनके अपने मिशन और सपने रहे हैं, जिनमें से कई को नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद पूरा भी किया गया है। लेकिन क्या शिवसेना के लिए भी ऐसा ही कहा जा सकता है? क्या शिवसेना की स्थापना भी हिन्दुत्व की वैचारिकी के आधार पर हुई थी? इसकी स्थापना के वक्त पार्टी का मिशन और सपना क्या था?

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इसे समझने के लिए उस व्यक्ति की विचारधारा को समझना आवश्यक है, जिसने शिवसेना का नामकरण किया था। प्रबोधनकार केशव सीताराम ठाकरे- यह शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के पिता का नाम है यानी उद्धव ठाकरे के दादा का नाम। प्रबोधनकार ठाकरे का परिचय कई तरह से दिया जा सकता है, हालांकि महाराष्ट्र के भीतर वो किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। प्रबोधनकार ठाकरे एक लेखक, पत्रकार, संपादक, प्रकाशक नाटककार, संगीतज्ञ, शिक्षक, अभिनेता, टाइपिस्ट, चित्रकार, नेता, वक्ता, धर्म सुधारक, समाज सुधारक और इतिहास संशोधक भी थे।

प्रबोधनकार की विचारधारा: बाल ठाकरे के पिता को सबसे अधिक ख्याति समाज सुधारक और लेखक के रूप में मिली। प्रबोधनकार अपने जमाने के बड़े सोशल रिफॉर्मर थे। उनके विचारों की निर्मिति लोकहितवादी महात्मा फुले और रॉबर्ट इंगरसॉल के पठन-पाठन से हुई थी। इंगरसॉल एक प्रसिद्ध अज्ञेयवादी थे, जो समस्त धर्ममूल्यों के कटू आलोचक थें। इंगरसॉल और स्वामी विवेकानंद के बीच हुआ बहस प्रसिद्ध है।

इनके अलावा सत्यशोधक समाज की स्थापना करने वाले महात्मा ज्योतिराव फुले का भी प्रबोधनकार पर गहरा प्रभाव था। आज फुले दलित नायक के रूप में याद किए जाते हैं। धर्म को लेकर फुले के विचार इतने विवादित हैं कि उसे अकादमिक चर्चाओं तक ही समिति रखना सुरक्षित होता है। जातिवाद, छुआछूत, धर्म के आडम्बर और अंधविश्वास को लेकर जो मुहीम फुले ने छेड़ी थी, उसे कलांतर में प्रबोधनकार ने आगे बढ़ाया। इसकी वजह से उन्हें समाज का बहिष्कार तक झेलना पड़ा। उनके आन्दोलन से परेशान समाज का कथित श्रेष्ठ वर्ग उनकी मृत्यु की झूठी अफवाहें फैलाता था, उनके घर के सामने मरा हुआ गधा डलवा देता था। फुल की तरह प्रबोधनकार ने भी ब्राह्मणों की कथित श्रेष्ठता और वर्ण व्यवस्था को खूब चुनौती दी।

दूसरी तरफ भाजपा के कुछ विचारक ऐसे रहें जिन्होंने वर्ण व्यवस्था और समाजिक गैर-बराबरी के पक्ष में दलीलें गढ़ीं। ऐसे ही एक विचारक रहे हैं आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर। भाजपा के सदस्य इन्हें अपना गुरू मानते हैं और सम्मान से गुरू गोलवलकर कहते हैं। गोलवलकर फुले और प्रबोधनकार के विपरित वर्ण व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था मानते थे। उनके मुताबिक, वर्ण व्यवस्था का जातिभेद और छुआछूत से कोई ताल्लुक नहीं था।

मंदिर का धर्म या धर्म का मंदिर: भाजपा के पैतृक संगठन आरएसएस ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए आन्दोलन चलाया। वहीं शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के पिता ने एक किताब लिखी जिसका शिर्षक था – देवळाचाचा धर्म आणि धर्माची देवळे (मंदिर का धर्म या धर्म का मंदिर)। इस किताब में प्रबोधनकार जवाब देते हैं कि मंदिर का धर्म होना चाहिए या धर्म का मंदिर। इसके अलावा प्रबोधनकार ठाकरे ने महान समाज सुधारक और वर्तमान में दलित नायक के तौर पर प्रसिद्ध संत गाडगे पर भी एक किताब लिखी है। गाडगे रविदास और कबीर परंपरा के संत थे। गाडगे भी जातिवाद और छुआछूत के खिलाफ आन्दोलन चलाते थे, इनके विचारों का प्रभाव अम्बेडकर पर भी था। जब महाराष्ट्र में छत्रपति शाहू महाराज ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के खिलाफ आन्दोलन चल रहा था, तो प्रबोधनकार उनके साथ थे। शाहू महाराज ऐसे पहले राजा थे, जिन्होंने वंचित समुदायों को आरक्षण दिया था।

छुआछूत का दंश: प्रबोधनकार की आत्मकथा ‘माझी जीवनगाथा’ में छुआछूत के कई किस्सों का जिक्र मिलता है। साथ ये भी पता चलता है कि तब छुआछूत सभी जातियों से होता था लेकिन छुआछूत करने वाली जाति सिर्फ एक थी। प्रबोधनकार कायस्थ जाति से ताल्लुक रखते हैं, जिसकी गिनती अभी सवर्ण जातियों में होती है। लेकिन अपने बचपन में उन्हें कायस्थ होने के बावजूद जातिभेद का समाना करना पड़ा था। बचपन में जब वह अपने ब्राह्मण सहपाठियों से पानी मांगते तो चौखट से नीछे खड़ा कर बर्तन से हाथ पर पानी गिराया जाता था। यानी पानी पीने के लिए बर्तन नहीं दिया जाता था, अंजुली से पानी पीना होता था। इतना ही नहीं, जिस बर्तन से प्रोबधनकार के हाथ पर पानी गिराया जाता उसे बिना घोये घर के भीतर नहीं ले जाया जाता था।

ऐसे ही एक बार जब वह अपने पिता के साथ ब्राह्मण के घर भोज में गए थे, तो उनकी पंगत ब्राह्मणों के पंगत से अलग थी। भोजन परोसने वाली महिला बड़े एहतियात के साथ खाने को ऊपर से ही प्लेट में गिरा रही थी। खाना खाने के बाद जब उनके पिता अपना और उनका बर्तन धोने बैठ गए तो उन्हें बहुत बुरा लगा। उन्होंने ने नाराज होते हुए कहा, अगर ब्राह्मण हमसे अलग तरीके से पेश आते हैं तो हम इन्हें आदर और सम्मान क्यों दें?

शिवसेना का वैचारिक आधार: 9 जून 1966 को शिवसेना की स्थापना हिन्दुत्व की विचारधार के आधार पर नहीं, मराठी अस्मिता के आधार पर हुई थी। बाद के दिनों में पार्टी ने अपने लिए जो भी रास्ता चुना हो लेकिन आधार हिन्दुत्व नहीं था। तीर धनुष के चुनाव चिन्ह और टाइगर के प्रतिक चिन्ह के साथ इस पार्टी का मिशन राज्य में मराठियों को उनका कथित हक दिलवाना था। उनके भीतर आत्म सम्मान भरना था। यह वर्किंग क्लास के बीच से निकली, वर्किंग क्लास के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के मिशन से शुरू हुई पार्टी थी। शिवसेना का शुरूआती आन्दोलन मुसलमानों के खिलाफ नहीं था बल्कि राज्य की नौकरियों और संसाधनों पर कथित तौर पर कब्जा किए दक्षिण भारत के लोगों के खिलाफ था। दूसरा सबसे बड़ा आन्दोलन उत्तर भारत के लोगों के खिलाफ था। राम मंदिर आन्दोलन और अन्य दक्षिणपंथी कृत्यों में उसकी सहभागिता पॉलिटिकल स्टंट मालूम पड़ती है।

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First published on: 04-07-2022 at 17:40 IST