“हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है!”
मजदूर आंदोलनों की ध्येय वाक्य रही इस पंक्ति को सरल और सहज शब्दों के जादूगर शैलेंद्र ने लिखा था। आज वह ज़िंदा होते तो 100 साल के होते। उन्होंने मात्र 17 साल के कॅरिअर में लगभग 900 गाने लिखे और 43 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया।
कभी सेंट्रल रेलवे में वेल्डिंग अप्रेंटिस का काम करने वाले शैलेंद्र बहुत छोटी उम्र में भारतीय सिनेमा के सबसे प्रसिद्ध गीतकारों में से एक बन गए थे। शैलेन्द्र ने संघर्ष और सफलता दोनों से भरपूर जीवन जीया।
शुरुआती जीवन
शैलेंद्र का जन्म 30 अगस्त, 1923 को पंजाब के रावलपिंडी (अब पाकिस्तान का हिस्सा) में हुआ था। मूल रूप से उनका परिवार बिहार के आरा जिले के धूसपुर गांव का था। उनके गांव के अधिकांश निवासी खेतिहर मजदूर थे। शैलेंद्र खुद दलित समुदाय से ताल्लुक रखते थे। वह प्रगतिशील माने जाने वाले तमाम संगठनों का हिस्सा रहे लेकिन कभी अपनी जातिगत पहचान से पर्दा हटाने का साहस नहीं जुटा पाए।
साल 2016 में शैलेंद्र के बेटे दिनेश शंकर शैलेंद्र ने अपने पिता की कविताओं का एक संग्रह ‘अंदर की आग’ राजकमल से प्रकाशित करवाया। इसी किताब के विमोचन कार्यक्रम में दिनेश ने खुलासा किया था कि उनके पिता धुरसिया जाति से थे, जो बिहार में मोची समुदाय का सदस्य होता है। किताब की प्रस्तावना में भी इसका जिक्र है। पुस्तक का विमोचन करते हुए वरिष्ठ आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने शैलेंद्र को संत रविदास के बाद सबसे बड़ा दलित कवि बताया था।
कैसे शुरू हुआ फिल्मी सफर?
शैलेंद्र के पिता केसरीलाल कामकाज की तलाश में रावलपिंडी से निकले तो घर बार छूट गया। केसरीलाल रावलपिंडी के मुरी छावनी में सेना के अस्पताल में ठेकेदार थे। शैलेन्द्र का कभी अपने पैतृक गांव से कोई नाता नहीं बन सका।
बाद में शैलेंद्र का परिवार रावलपिंडी छोड़कर मथुरा चला गया, जहां उनके चाचा रेलवे में काम करते थे। अब मथुरा के धौली प्याऊ इलाके में एक सड़क का नाम भी शैलेन्द्र के नाम पर रखा गया है।
मथुरा में पले-बढ़े शैलेन्द्र ने जीवन के शुरुआती दिनों में कठिन समय देखा। गरीबी से जूझ रहे युवा शैलेन्द्र ने अपनी बहन और मां को बीमारी के कारण खो दिया। 12वीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने नौकरी के लिए रेलवे की परीक्षा दी, जिसे पास करने के बाद पहली पोस्टिंग झांसी में हुई। बाद में मुंबई भेज दिए गए। बंबई (अब मुंबई) में वह माटुंगा रेलवे के मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में प्रशिक्षु का करते थे।
हिंदी और उर्दू काव्य परंपराओं को संयोजित करने वाले शैलेंद्र अक्सर काम खत्म करने के बाद मुशायरों और कवि सम्मेलनों में भाग लेते थे। इसी समय वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) की सांस्कृतिक शाखा ‘इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन’ (IPTA) से जुड़े और समाजवादी-थीम वाली कविताएं और गीत लिखना शुरू किया।
एक शाम राज कपूर ने शैलेंद्र को विभाजन पर आधारित एक कविता ‘जलता है पंजाब’ पढ़ते सुना। उन दिनों राजकपूर अपनी फिल्म ‘आग’ की तैयारी कर रहे थे। वह अपनी फिल्म में शैलेंद्र की इस कविता को शामिल करना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए शैलेंद्र 500 रुपया ऑफर भी किया। लेकिन युवा कवि ने यह कहते हुए झिड़क दिया कि उनकी कविता बिकाऊ नहीं है। अचंभित लेकिन प्रभावित होकर कपूर ने कवि को बताया कि उनका ऑफर हमेशा खुला है, जब मन बदले, तब आ सकते हैं।
कुछ समय बाद स्थिति कुछ ऐसी बनी कि युवा कवि को पैसों की जरूरत पड़ी। दरअसल, शैलेंद्र की पत्नी गर्भवती थीं और उनकी डिलीवरी के लिए जितने पैसे चाहिए थे, उतने उनके पास नहीं थे। उन्हें कपूर का प्रस्ताव याद आया। वह उनके पास पहुंचे और तुरंत 500 रुपये का इंतजाम हो गया। शैलेंद्र इसके बाद से ही कपूर की टीम का हिस्सा बन गए। राजकपूर उन्हें प्यार से कविराज कहते थे।
पत्नी को IPTA की मीटिंग में छोड़ आए थे शैलेंद्र
शैलेंद्र अपने काम में इतने लीन रहते थे कि उन्होंने एक बार अपनी पत्नी को इप्टा की बैठक में छोड़कर घर चले आए थे। शैलेंद्र की बेटी अमला शैलेंद्र एक इंटरव्यू बताती हैं कि अगस्त 1966 में बाबा अपनी पत्नी के साथ इप्टा की मीटिंग में गए थे और उन्हें वहीं भूलकर गाना लिखते-लिखते घर आ गए। बाद में दीना पाठक (अभिनेत्री) ने उन्हें घर पहुंचाया। जब दोनों घर पहुंची तो शैलेंद्र बैठकर सिगरेट पी रहे थे। यह देखकर पत्नी शकुंतला बहुत गुस्सा हुईं। दीना पाठक ने इस लापरवाही को लेकर जब सवाल पूछा तो उन्होंने कहा कि मुझा पता था वो किसी न किसी के साथ आ ही जाएंगी।
स्पोर्ट्स बहुत पसंद था
शैलेंद्र की स्पोर्ट्स बहुत दिलचस्पी थी। वह बचपन में हॉकी खूब खेला करते थे। अमला अपने पिता के बचपन से जुड़ा एक किस्सा बताती हैं, जिसके मुताबिक शैलेंद्र ने एक बार हॉकी स्टीक तोड़कर फेंक दी थी क्योंकि उन्हें हॉकी खेलते हुए देख कुछ छात्रों ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा था, ‘अब ये लोग भी खेलेंगे।’
शैलेंद्र का स्पोर्ट्स प्रेम मुंबई आने के बाद भी बना रहा। वह अपने बच्चों के साथ अलग-अलग खेलों के टूर्नामेंट देखने जाते थे। यह दिलचस्प है कि जिस रोज (14 दिसंबर, 1966) उनकी मौत हुई, उस रोज भी भारत-वेस्टइंडीज का एक महत्वपूर्ण क्रिकेट मैच चल रहा था। रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री बीच में रोककर शैलेंद्र की मृत्यु की सूचना दी गई थी।
संयोग देखिए कि 14 दिसंबर को ही राज कपूर अपना जन्मदिन भी मनाते थे। शैलेंद्र की मौत पर उन्होंने कहा था, “मेरे दोस्त ने जाने के लिए कौन सा दिन चुना, किसी का जन्म, किसी का मरण। कवि था ना, इस बात को खूब समझता था।”