अर्जुन सेनगुप्ता

1 जनवरी, 1948 को वर्तमान झारखंड के खरसावां शहर में 1919 में जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार की याद ताजा हो गई थी। पुलिस ने एक विरोध प्रदर्शन और साप्ताहिक हाट (बाज़ार) के लिए एकत्रित भीड़ पर गोलियां चलाईं, जिसमें सैकड़ों या कुछ दस्तावेजों के अनुसार, हजारों आदिवासी मारे गए।

यही कारण है कि झारखंड में कई लोग नए साल के दिन को शोक और स्मरण दिवस के रूप में मनाते हैं। इस आर्टिकल में हम  खरसावां नरसंहार की कहानी जानेंगे।

आदिवासी राज्य के लिए संघर्ष

1912 में बिहार और उड़ीसा प्रांत बनाने के लिए बंगाल प्रेसीडेंसी का विभाजन किया गया था। हालांकि, इस नए प्रांत के भीतर, अपनी विशिष्ट संस्कृति के साथ एक बड़ी आदिवासी आबादी मौजूद थी। आदिवासियों को अंग्रेजों और गैर-आदिवासी आबादी, दोनों से कई शिकायतें थीं। इस प्रकार 1912 में ही सेंट कोलम्बा कॉलेज (हजारीबाग) में पहली बार एक अलग आदिवासी राज्य की मांग मुखर हुई। अगले कुछ वर्षों में मांग ने जोर पकड़ा।  

जब साइमन कमीशन भारत आया तो, उसने विभाजन को आधिकारिक मान्यता दी। कमीशन को भारत में संवैधानिक सुधारों पर रिपोर्ट करने का अधिकार दिया गया था। कमीशन ने कहा, “बंगाल प्रेसीडेंसी का गठन तीन क्षेत्रों को एक ही प्रशासन के अंतर्गत लाकर किया गया था, जो न केवल भौतिक विशेषताओं में, बल्कि कई सामाजिक, भाषाई और सांस्कृतिक विशेषताओं में भी स्पष्ट रूप से भिन्न हैं।” इस तरह 1912 में बंगाल से अलग बिहार अलग राज्य बन गया।  

1936 में जब उड़ीसा अलग हुआ, तब भी आदिवासियों की मांगें अनसुनी रहीं। 1938 में संघर्ष जारी रखने के लिए आदिवासी महासभा का गठन किया गया। भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान जयपाल सिंह मुंडा (1903-70) इसके सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे।

खरसावां के उड़ीसा में विलय की समस्या

खरसावां एक छोटी सी रियासत थी, जिसका क्षेत्रफल 400 वर्ग किमी से भी कम था। यह जमशेदपुर के पश्चिम में स्थित है। आजादी के समय, खरसावां ने पूर्वी भारत की 24 अन्य रियासतों के साथ भारत संघ में शामिल होने और उड़ीसा राज्य में शामिल होने का फैसला किया।

हालांकि अधिकांश आदिवासियों ने इस विलय का विरोध किया। वे किसी राज्य में शामिल न हो कर एक अलग आदिवासी राज्य चाहते थे। इसके विरोध में 1 जनवरी, 1948 को खरसावां में एक विशाल बैठक बुलाई गई। इसी दिन विलय भी होना था। यह कस्बे में साप्ताहिक हाट का दिन भी था। जयपाल मुंडा को खुद मौजूद रहना था और भीड़ को संबोधित करना था।

अनुभवी पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा ने अनसंग हीरोज ऑफ झारखंड मूवमेंट (2017) में लिखा है, “जयपाल सिंह मुंडा के आह्वान पर था कि 50 हजार से अधिक आदिवासी खरसावां में एकत्र हुए।”

खरसावां का विलय एक बड़ा मुद्दा था, इसलिए बैठक में युवा और बूढ़े, पुरुष और महिलाएं, आसपास के गांवों के लोग और सैकड़ों किलोमीटर दूर रहने वाले लोग भी आए थे। वहीं कई लोग जयपाल मुंडा की एक झलक पाने के लिए भी आए थे।

जलियांवाला बाग की गूंज

भीड़ की विशाल संख्या और उत्साह ने उड़ीसा सैन्य पुलिस को डरा दिया। पुलिस पर शहर में कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी थी। ध्यान रखें, यह वह समय था जब देश भर की रियासतों को भारत संघ में एकीकृत किया जा रहा था – कुछ शांतिपूर्वक, तो कुछ बलपूर्वक। इससे ऐसी स्थिति पैदा हो गई जहां छोटी सी चिंगारी भी किसी भयानक घटना को अंजाम दे सकती थी। 1 जनवरी 1948 को ठीक ऐसा ही हुआ।

सिन्हा ने लिखा, नरसंहार के दिन खरसावां एक “पुलिस शिविर” जैसा था। इस बीच 50,000 की भीड़ जमा हो गई, उन्होंने अपनी मांगें उठाई और जयपाल मुंडा के आने का बेसब्री से इंतजार किया। इसके अलावा, कई अन्य लोग पास के हाट में खरीदारी कर रहे थे। खरसावां खचाखच भरा हुआ था।

किसी कारणवश मुंडा बैठक में नहीं पहुंच पाए। कई लोगों का मानना है कि उनकी उपस्थिति मात्र से उस त्रासदी को टाला जा सकता था। भीड़ बेचैन थी और काफी हद तक पुलिस से घिरी हुई थी। अचानक, पुलिस ने अपनी स्टेन गन से गोलीबारी शुरू कर दी। सिन्हा ने लिखा, “लोगों पर लगातार गोलियां चल रही थीं… जब तक गोलीबारी रुकी, पूरा मैदान लाशों से पट गया था।”

जिस स्थान पर नरसंहार हुआ था उसके पास ही एक कुआँ था। पुलिस ने उसमें शवों को ठिकाने लगाना शुरू कर दिया। कुआँ शवों से भर जाने के बाद, बाकी को जंगल में ले जाया गया और वहाँ फेंक दिया गया।

जो घायल हुए उनकी स्थिति शायद और भी बदतर हो गई। सिन्हा ने लिखा है, “यह सर्दी का मौसम था। लोग ठंड में कांपते हुए वहीं पड़े रहे। कई लोगों को अगले दिन तक इलाज नहीं दिया गया।”

क्या हुआ परिणाम?

आज तक, इस बात पर कोई सहमति नहीं है कि नरसंहार में कितने लोगों की जान गई। तत्कालीन उड़ीसा सरकार ने केवल 35 मृतकों की पुष्टि की। यह संख्या दो दिन बाद द स्टेट्समैन में प्रकाशित हुई खबर का शीर्षक था- 35 Adibasis Killed in Kharsavan.

वास्तविक संख्या कहीं अधिक होने की संभावना है। मेमॉयर ऑफ अ बायगोन एरा (2000) में पूर्व लोकसभा सांसद और कालाहांडी के अंतिम शासक पीके देव ने कहा कि कम से कम 2,000 आदिवासी मारे गए और कई घायल हुए।

नरसंहार का आदेश देने के लिए कौन जिम्मेदार था, इस बारे में भी कोई स्पष्टता नहीं है। सिन्हा ने लिखा है, “कई समितियां बनाई गईं, जांच की गईं, लेकिन कोई रिपोर्ट नहीं आई। दुनिया जलियांवाला बाग नरसंहार के खलनायक के बारे में जानती है, लेकिन खरसावां नरसंहार के पीछे के रेगिनाल्ड डायर का आज भी पर्दाफाश नहीं हो पाया है।”

आज, खरसावां के बाजार में एक स्मारक खड़ा है, जिसे कुछ लोग राज्य का “राजनीतिक तीर्थ” स्थल बताते हैं। अर्जुन मुंडा, रघुबर दास और हेमंत सोरेन जैसे राज्य के नेता वर्षों से नए साल के दिन स्मारक का दौरा करते रहे हैं।