जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manjhi) के बेटे संतोष मांझी (Santosh Manjhi) के नीतीश कैबिनेट से इस्तीफे के बाद उनकी जगह पर जेडीयू विधायक रत्नेश सदा (Ratnesh Sada) ने मंत्री पद की शपथ ली है। सहरसा के सोनबरसा सीट से तीन बार चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचने वाले रत्नेश सदा के माता-पिता मजदूर थे। 

मजदूरी में मिलने वाले अनाज से घर के 10 बच्चों का पालना मुश्किल था, परिणामस्वरूप रत्नेश सदा और उनके भाई-बहनों के लिए बिना खाए सो जाना आम बात थी। बकौल सदा, माता-पिता को मजदूरी में धान-गेहूं मिलने पर जश्न जैसा माहौल होता था क्योंकि भात और गेहूं के आटे की रोटी भी परिवार के लिए दुर्लभ चीज़ थी।

एक रोज तो तीन दिन से भूखे परिवार को खिलाने के लिए रत्नेश सदा को 12 रुपए में दिन भर नदी से बांस निकालने का काम करना पड़ा था। बिहार (Bihar) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की सरकार के नए मंत्री और तीन बार के जदयू विधायक (JDU MLA) रत्नेश सदा (Ratnesh Sada) ने Jansatta.com के संपादक व‍िजय कुमार झा (Vijay Kumar Jha) को दिए इंटरव्यू में अपने संघर्ष की पूरी दास्तान सुनाई है:

रत्‍नेश सदा बताते हैं क‍ि उनके समाज की सबसे बड़ी समस्‍या है श‍िक्षा का अभाव। रत्‍नेश ने खुद बड़ी मुश्‍क‍िल से ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई पूरी की।

एक हत्या के बाद आया नेता बनने का ख्याल

रत्नेश सदा बिहार के महादलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और खुद को कबीरपंथी बताते हैं। इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि कैसे एक हत्‍या की वजह से उनके मन में राजनीति ज्वाइन करने का ख्‍याल आया। साल 1995 की बात है। विष्णुदेव सदा नामक एक वामपंथी नेता की अपराध‍ियों ने हत्या कर दी थी। विष्णुदेव सदा के ल‍िए आयोजित एक शोकसभा में रत्‍नेश सदा को भी बुलाया गया। उस कार्यक्रम में परिवार को सांत्वना देने के ल‍िए वामपंथी राजनीतिक संगठन सी.पी.आई (एम) के गणेश शंकर विद्यार्थी भी पहुंचे हुए थे। 

रत्नेश बताते हैं कि तब राज्य में हत्या, लूट और अपहरण की घटनाएं चरम पर थीं। विष्णुदेव सदा की शोक सभा से लौटने के बाद रत्नेश सोच में पड़ गए कि समाज में फैली इन समस्याओं का क्या उपाय है? इंटरव्यू में सदा बताते हैं, “हथियार उठाने से काम नहीं चलता। पढ़ तो लिया था। लेकिन तब अपने दम कर कुछ करने का सामर्थ्य नहीं था। सोचते-सोचते मुझे लगा कि सभी तालों को खोलने की एक ही चाभी है-राजनीति। एक साल पहले ही नीतीश कुमार ने समता पार्टी का गठन हुआ था। तब रामजी राय समता पार्टी के उम्मीदवार थे। मैं उन्हीं के सम्पर्क में आया। वह चुनाव तो हार गए। लेकिन मुझे उन्होंने पार्टी का पंचायत अध्यक्ष बनाया और फिर प्रखंड अध्यक्ष बनाया।”

2001 में मुखिया का लड़ा चुनाव

रत्नेश सदा ने साल 2001 में ग्राम प्रधान (मुखिया) का चुनाव लड़ा था। दरअसल, तब सदा ने गांव में ‘झोला छाप डॉक्टर’ की ख्याति हासिल कर ली थी। इसके पीछे भी एक कहानी है। 12वीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए रत्नेश सदा घर से कई किलोमीटर दूर रहते थे। जब साल 1991 की जनवरी में सदा घर आए तो उनका परिवार पिछले तीन दिनों से भूखा था। रत्नेश सदा को देखते ही घर के सभी लोग रोने लगे। घर में कुछ खाने को था नहीं तो पूरा परिवार खेसारी का साग खाकर सो गया।

सुबह से ही परिवार काम मिलने के इंतजार में था। तभी एक बांस का व्यापारी आया। उसे नदी से बांस निकलवाना था। नदी से 200 बांस निकालने पर 24 रुपये मिलते। सदा के लिए अकेले इतना काम करना संभव नहीं था। उन्होंने पड़ोस से अपने मामा को बुला लिया। दोनों ने पहले अपनी मजदूरी के 12-12 रुपये लिए। रत्‍नेश ने चावल खरीद कर पर‍िवार को द‍िया और फिर द‍िन भर बांस निकालने का काम किया। मजदूरी के उसी पैसे से सदा के परिवार ने भात खाया।

नदी से बांस निकालने के बाद सदा, नदी पार कर जंगल के रास्ते अपनी मंजिल (जहां रहकर पढ़ाई करते थे) की तरफ निकल पड़े। रास्ते उनकी मुलाकात साधु श्याम सुंदर से हुई। श्याम सुंदर संत होने के साथ-साथ ग्रामीण चिकित्सक भी थे। सदा, साधु का झोला लेकर साथ चलने लगे। रास्ते की बातचीत में साधु को साद की गरीबी और मजबूरी का पता चला। उन्होंने सदा को अपने क्लीनिक पर काम दे दिया। वहां काम करते हुए ही सदा ने संस्कृत में बीए किया। वहां सीखे काम की बदौलत आगे चल कर सदा ने रोजी कमाने के ल‍िए ‘झोला छाप डॉक्‍टर’ का भी काम क‍िया।

ब‍िहार में आई व‍िनाशकारी बाढ़ में क‍िए गए राहत कार्यों के चलते वह शरद यादव जैसे नेता की नजर में आए। बाद में एक पत्रकार ने उनके ल‍िए माहौल बनाया और महादल‍ित सम्‍मेलन करवाने की चुनौती रत्‍नेश सदा को स्‍वीकार करवा दी। इस सम्‍मेलन की सफलता के चलते 2010 में उन्‍हें जदयू से व‍िधायक का ट‍िकट म‍िला। तब से वह लगातार व‍िधायक हैं।