लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे सामने आने के बाद सवाल उठ रहा है कि क्या बीजेपी और आरएसएस में दूरी बन रही है? पहले समझते हैं कि यह सवाल क्यों उठ रहा है।
यह सवाल उठ रहा है संघ की ओर से आए कुछ नेताओं के बयानों से और बीच चुनाव भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की एक टिप्पणी से। संघ प्रमुख मोहन भागवत और इसके नेता इंद्रेश कुमार, रतन शारदा की ओर से लगातार बयान आए।
भागवत ने चार-पांच बातों पर जोर दिया- सच्चे सेवक को अहंकार नहीं होता, चुनाव में मर्यादा का पालन नहीं हुआ, लोकतंत्र में विरोधी नहीं प्रतिपक्ष होता है और सहमति बना कर चलना होता है। साथ ही, मणिपुर में जारी हिंंसा के समाधान का मुद्दा उठाया।
मोहन भागवत ने यह भी कहा,
“जो मर्यादा का पालन करते हुए काम करता है. गर्व करता है लेकिन अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों में सेवक कहलाने का अधिकारी है.”
भागवत का बयान आया 10 जून को और 11 जून को ‘ऑर्गनाइजर’ में आरएसएस सदस्य रतन शारदा का लेख छपा। उन्होंने कई बातों के साथ दलबदलुओं को अहमियत दिए जाने का मुद्दा उठाया और कहा कि आरएसएस भाजपा की फील्ड फोर्स नहीं है।

इंद्रेश कुमार बोले- अहंकार आ गया था तभी 240 सीटें मिलीं
इंद्रेश कुमार ने अहंकार की बात उठाई और कहा कि “2024 में राम राज्य का विधान देखिए, जिनमें राम की भक्ति थी और धीरे-धीरे अहंकार आ गया, उन्हें 240 सीटों पर रोक दिया। जिन्होंने राम का विरोध किया, उनमें से राम ने किसी को भी शक्ति नहीं दी, कहा- तुम्हारी अनास्था का यही दंड है कि तुम सफल नहीं हो सकते।”
भागवत चुनाव से पहले या चुनाव के दौरान भी बोल सकते थे
ये सारे बयान चुनाव खत्म हो जाने के बाद आए। शारदा और इंद्रेश कुमार तो खैर चुनाव परिणामों का ही विश्लेषण कर रहे थे, लेकिन भागवत अपनी बात चुनाव परिणामों के विश्लेषण के संदर्भ में नहीं कह रहे थे। उन्होंने जो मुद्दा उठाया, वह चुनाव से पहले भी उठाया जा सकता था। लेकिन, अगर चुनाव के बीच भागवत ऐसी बातें करते तो भाजपा पर इसका बहुत बुरा असर पड़ सकता था।
वैसे, भागवत मणिपुर का मसला चुनाव से पहले उठा भी चुके थे। 2023 में। अपने विजयादशमी भाषण में। तब चुनाव का कोई माहौल नहीं था।
तब भागवत ने कहा था,
“मणिपुर में हिंसा किसने भड़काई? यह हिंसा अपने आप नहीं हुई या लाई गई। अब तक, मैतई और कुकी दोनों समुदाय अच्छे से रह रहे थे। यह सीमावर्ती राज्य है और अगर यहां हिंसा होती है तो हमें सोचना चाहिए कि इससे किसे फायदा हो रहा है।”
इस बार उन्होंने कहा,
‘विकास के लिए देश में शांति जरूरी है। देश में अशांति है और काम नहीं हो रहा है। देश का अहम हिस्सा मणिपुर एक साल से जल रहा है। नफ़रत ने मणिपुर में अराजकता फैला दी है। वहां हिंसा रोकना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।
तो इन्हीं सब बयानों के मद्देनजर खबर बनी कि बीजेपी और आरएसएस के बीच रिश्ते ठीक नहीं हैं। लेकिन, क्या असल खबर यह है?
समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं।
पार्टी पर संघ का नियंत्रण रहेगा: दीनदयाल उपाध्याय
आरएसएस शुरू से ही राजनीति करने के पक्ष में नहीं था। लेकिन जब संगठन में एक धड़ा इसके लिए दबाव बनाने लगा तो रास्ता निकाला गया अलग पार्टी बनाने का। भारतीय जनसंघ का जन्म इसी का नतीजा था।
लेखक वाल्टर एंडरसन ने अपनी किताब द ब्रदरहुड इन सैफरन में लिखा है कि एक आरएसएस सदस्य ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय से पूछा था कि सत्ता मिलने पर जनसंघ के नेता करप्ट नहीं होंगे, इसकी क्या गारंटी है तो उन्होंने जवाब दिया था कि संघ से जुड़ी पार्टी भ्रष्ट होती है तो उसे खत्म करने की शक्ति आरएसएस के पास ही होगी।
यानि, पार्टी पर संघ का नियंत्रण बना रहेगा। वह नियंत्रण कमजोर न पड़े इस बात का ध्यान संघ रखता रहा है।
संघ भी अब यह पूरी तरह समझता है कि अपना एजेंडा पूरा करवाना सत्ता में रह कर ही संभव हो सकता है। आज प्रधानमंत्री के अलावा करीब दर्जन भर मुख्यमंत्री और डेढ़ दर्जन राज्यपाल संघ कनेक्शन वाले हैं। शिक्षण संस्थानों व अन्य सरकारी संस्थानों के प्रमुखों व अहम पद संभालने वालों की बात तो छोड़ ही दीजिए।

संघ प्रमुख ने की थी वाजपेयी के कार्यकाल की आलोचना
सवाल ये भी है कि क्या संघ की ओर से बीजेपी या बीजेपी सरकार की आलोचना पहली बार हुई है? नहीं।
साल 2000 में सुदर्शन ने वाजपेयी के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस तक कर दी थी। 2004 में भी जब बीजेपी हारी थी तो तब के संघ प्रमुख केएस सुदर्शन ने बतौर पीएम वाजपेयी के कार्यकाल की आलोचना की थी और यहां तक कह दिया था कि वाजपेयी और आडवाणी को संन्यास लेकर नए नेतृत्व को मौका देना चाहिए।
उसकी तुलना में ताजा घटनाक्रम तो कुछ भी नहीं है।

तो क्या खबर ये है कि संघ ने अपने कार्यकर्ताओं को शांत करने के लिए ये बातें कही हैं, जो बीजेपी नेतृत्व के रुख से असंतुष्ट बताए जा रहे हैं? क्या भाजपा व आरएसएस के कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए ये बयान दिए गए हैं? और, क्या नरेंद्र मोदी को संदेश देने के लिए ये बातें कही गई हैं? और यह संदेश देना भी इनका मकसद है कि संघ को हल्के में नहीं लिया जाए? मतलब ये कोर्स करेक्शन है और असल में भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए है ताकि नेता-कार्यकर्ता सब अपने-अपने हिसाब से जरूरी कदम उठाने लग जाएं?
मेरे हिसाब से असल खबर यही है।