साल 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो उस समय देश में 565 रियासतें थीं। सबके अपने राजा, महाराजा, निजाम और नवाब थे। इनके नियम-कायदे और कानून भी अलग-अलग थे। इन्हीं में से एक था गुजरात का बड़ौदा रियासत, जो उस वक्त देश की तीसरी सबसे अमीर रियासत थी। बड़ौदा रियासत ने महराजा सयाजीराव गायकवाड़ (Maharaja Sayajirao Gaekwad) के जमाने में अपना सबसे अच्छा वक्त देखा। सयाजीराव गायकवाड़ (Maharaja Sayajirao Gaekwad) ने तमाम शैक्षणिक संस्थानों की नींव रखी। इसमें उनकी पत्नी और महारानी चिमनबाई (द्वितीय) ने बखूबी साथ दिया। यहां तक की अपनी बेशकीमती तिजोरी भी दान कर दी थी।

महारानी चिमनबाई (Maharani Chimnabai) अकूत संपत्ति की मालकिन थीं। उनके पास एक से बढ़कर एक सोने, चांदी, हीरे, मोती के गहने थे। महारानी ने इन गहनों को रखने के लिए उस जमाने में लंदन से खास तिजोरियां मंगवाई थीं। इन तिजोरियों को रैटनर सेफ कंपनी ने बनाया था।

लंदन की कंपनी ने बनाई थी खास तिजोरी

साल 1784 में स्थापित रैटनर सेफ कंपनी (Ratner Safe Company, London) दुनिया भर में अपनी तिजोरियों के लिए मशहूर है और अब भी दुनियाभर के तमाम वित्तीय संस्थानों, बैंकों, सेफ हाउस के लिए तिजोरी बनाती है। उस जमाने में महारानी ने जो तिजोरियां मंगाई थीं, उसकी खासियत यह थी कि उसको न तो कोई चोर तोड़ सकता था ना ही उसमें आग लगाई जा सकती थी।

अब प्राचीन पांडुलिपियां रखी जाती हैं

महारानी चिमनबाई (Maharani Chimnabai) की विशालकाय तिजोरियां अब सयाजीराव यूनिवर्सिटी (Sayajirao University) में हैं। इन तिजोरियों में बहुमूल्य प्राचीन पांडुलिपियों को रखा जाता है। बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट के मुताबिक खुद महाराज सयाजीराव ने ओरिएंटल इंस्टीट्यूट को ये तिजोरियां तोहफे के तौर पर दी थीं। ओरिएंटल इंस्टीट्यूट प्राचीन और बहुमूल्य पांडुलिपियों पर रिसर्च और संरक्षण का काम करता है।

महाराज ने क्यों दान कर दी थीं महारानी की खास तिजोरियां

ओरिएंटल इंस्टीट्यूट (ORiental Institute Vadodara) की डायरेक्टर डॉ. श्वेता प्रजापति बीबीसी को बताती हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान महाराज सयाजीराव गायकवाड ने सोचा कि इतना अच्छा संस्थान बन गया है, लेकिन जिन बेशकीमती और बहुमूल्य पांडुलिपियों को संरक्षित किया जा रहा है उन्हें नष्ट होने से बचाने के लिए क्या किया जाए? उन्होंने काफी विचार किया और अपनी पत्नी महारानी चिमनबाई की बेशकीमती तिजोरियों को दान कर दिया।

उस दौर में महाराजा सयाजीराव ( Maharaja Sayajirao) ने गुजरात समेत देश के तमाम हिस्सों से प्राचीन और बेशकीमती पांडुलिपियों को इकट्ठा किया और उन्हें विश्वविद्यालय ले आए। इनमें से कई पांडुलिपियां ऐसी थीं जो लगभग नष्ट होने के कगार पर थीं। इन्हें सयाजीराव यूनिवर्सिटी में रखा और बाद में एक अलग डिपार्टमेंट बना दिया जो आगे चलकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट के नाम से जाना गया।

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महारानी चिमनबाई और महाराजा सयाजीराव गायकवाड़। फोटो सोर्स- historyofvadodara.in

पर्दा प्रथा की विरोधी थीं महारानी चिमनबाई

महारानी चिमनबाई (Maharani Chimnabai) अपने समय से बहुत आगे की सोचती थीं। वह पर्दा प्रथा की पुरजोर विरोधी थीं। खुद बगैर पर्दा रहती थीं। historyofvadodara.in पर दी गई जानकारी के मुताबिक साल 1914 में महारानी ने पर्दा को पूरी तरह त्याग दिया और महाराजा के साथ एक गद्दी पर बगैर घूंघट के बैठने लगीं। महारानी ने तमाम शैक्षणिक संस्थानों को गोद लिया था और वहां पढ़ रही लड़कियों को अलग से स्कॉलरशिप दिया करती थीं।