भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू समर्थन जुटाने के लिए गुरुवार को महाराष्ट्र की यात्रा पर थीं। उन्होंने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले शिवसेना के बागी धड़े, भाजपा नेताओं, विधायकों और सांसदों से मुलाकात की। लेकिन शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे से मिलने मातोश्री नहीं गईं। हालांकि शिवसेना अपने सांसदों के एक वर्ग के दबाव में मुर्मू को समर्थन देने की घोषणा कर चुकी है।
 
मुर्मू के मातोश्री न जाने का कारण भाजपा नेताओं ने उनके व्यस्त शेड्यूल को बताया है। भाजपा अधिकार ने कहा कि उनका पूरा कार्यक्रम पहले से ही तय था। गोवा से मुंबई पहुंचकर वह उन्हीं नेताओं से मिलीं, जिनके साथ बैठक तय थी। इसमें भाजपा और शिंदे गुट के सदस्यों का नाम शामिल था। उनके कार्यक्रम में आखिरी मिनट कोई बदलाव करने का सवाल ही नहीं था।

287 सदस्यीय महाराष्ट्र विधानसभा में 106 विधायक भाजपा के हैं, शिवसेना के 40 बागी विधायक शिंदे गुट के पास है। भाजपा-शिंदे धड़े के साथ निर्दलीय विधायकों को जोड़ दें तो उनके पास कुल 164 विधायक हैं। राज्य के 48 लोकसभा सांसदों में से 23 भाजपा के हैं।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा ने तय किया था कि द्रौपदी मुर्मू उद्धव का शुक्रिया अदा करने मातोश्री ना जाएं। दरअसर भाजपा उद्धव को किसी भी तरह का राजनीतिक महत्व और लाभ नहीं देना चाहती है। भाजपा के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि अगर उद्धव मुर्मू की उम्मीदवारी को सपोर्ट नहीं करते, तो उनके संसदीय दल के भीतर दरार पड़ जाती। शिवसेना के पास 18 सांसद हैं, ठाकरे द्वारा बुलाई गई आंतरिक बैठक 15 सांसदों ने मुर्मू को समर्थन देने को कहा। ऐसी स्थिति एनडीए की उम्मीदवर को समर्थन देने का उनका निर्णय शिवसेना के सभी 18 सांसदों को अपने समूह में रखने का एक “हताश” प्रयास है।

शिंदे के नेतृत्व में शुरू हुई बगावत ठाकरे का इस्तीफा और एमवीए गठबंधन सरकार के पतन का कारण बनी। 30 जुलाई को शिंदे और भाजपा ने मिलकर सरकार बनाई, जिसमें शिंदे ने सीएम और भाजपा के वरिष्ठ नेता देवेंद्र फडणवीस ने डिप्टी सीएम के रूप में शपथ ली। इतना सब कुछ होने के बाद भाजपा ठाकरे के साथ किसी तरह के सुलह का संकेत नहीं देना चाहती है। भाजपा फिलहाल शिंदे को सशक्त बनाएगी और राज्य में खुद को और मजबूत करने के लिए ठाकरे के नेतृत्व वाली सेना को खत्म करने में शिंदे का इस्तेमाल करेगी। कुल मिलाकर भाजपा शिवसेना के “विश्वासघात” को भूलने की जल्दी में नहीं है।

बीजेपी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा, “जहां तक भाजपा का सवाल है, हम शिंदे के नेतृत्व वाले गुट को असली शिवसेना मानते हैं क्योंकि उनके पास कुल 55 में से 40 शिवसेना विधायकों का बहुमत है।” बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है, ”हमने कभी ठाकरे के नेतृत्व वाली सेना से मुर्मू के लिए समर्थन नहीं मांगा। समर्थन का निर्णय उनका अपना है। उनके समर्थन के बिना भी हमारी उम्मीदवार जीतेंगी क्योंकि हमारे पास पर्याप्त वोट हैं।”

उधर शिवसेना का कहना है कि ”हमारा समर्थन एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाने के लिए है। इसे एनडीए उम्मीदवार का समर्थन नहीं समझना चाहिए। हम ऐसी संकीर्ण पक्षपातपूर्ण राजनीति में विश्वास नहीं करते हैं।” हालांकि ठाकरे अपने इस कदम के लिए एनडीए से कुछ “सकारात्मक प्रतिक्रिया” की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं।

भाजपा के एक वर्ग का यह भी कहना है कि शिवसेना एनडीए की सहयोगी रहते हुए भी राष्ट्रपति चुनाव में अलग लाइन लेती रही है। 2007 और 2012 के राष्ट्रपति चुनावों में तत्कालीन बाल ठाकरे के नेतृत्व वाली सेना ने यूपीए के उम्मीदवारों प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था। ये दोनों उम्मीदवार एनडीए के उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत और पीए संगमा को हराकर चुनाव जीते थे।

मुर्मू का समर्थन करने के उद्धव ठाकरे के फैसले का उनके एमवीए सहयोगियों ने आलोचना की है। कांग्रेस नेता बालासाहेब थोराट ने कहा, ”भाजपा ने एमवीए सरकार को उखाड़ फेंका। इसने शिवसेना को विभाजित कर दिया। इन सब घटनाक्रमों के बाद ठाकरे एनडीए का समर्थन कैसे कर सकते थे। यह सही नहीं है।” वहीं राज्य के राकांपा प्रमुख जयंत पाटिल ने कहा, “ठाकरे ने अपनी पार्टी के सदस्यों की इच्छा से एक आदिवासी उम्मीदवार का समर्थन किया होगा।”