आपने किस्से-कहानियों में तो कबूतर के जरिए संदेश भिजवाने की बात सुनी होगी, लेकिन व्हाट्सएप-फेसबुक और इंस्टेंट मैसेजिंग के इस जमाने में देश एक राज्य ऐसा भी है जहां अभी भी कबूतर डाक सेवा है। ओडिशा देश का इकलौता राज्य है, जहां अभी भी आपदा और इमरजेंसी की स्थिति में एक जगह से दूसरी जगह मैसेज भेजने के लिए कबूतर रखे गए हैं।
कब और कैसे शुरू हुई थी सेवा?
ओडिशा में कबूतर डाक सेवा की शुरुआत साल 1946 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुई थी, तब सेना ने राज्य की पुलिस को 200 कबूतर दिये थे। उन दिनों पुलिस एक जगह से दूसरी जगह मैसेज भेजने के लिए धड़ल्ले से कबूतरों का इस्तेमाल किया करती थी। सबसे पहले यह सेवा राज्य के कोरापुट जिले में शुरू हुई और धीरे-धीरे सभी जिलों में लागू हो गई थी। बाद में जब कटक में ओडिशा पुलिस का मुख्यालय बना तो वहीं, इन कबूतरों का ब्रीडिंग सेंटर भी बनाया गया था।
2002 में बंद कर दी गई थी सेवा
हालांकि जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी उन्नत होती गई, संदेश भेजने के लिए कबूतरों का इस्तेमाल भी कम हो गया। Indian Express की सीरीज Make History Fun Again में अर्चना गारोड़िया गुप्ता और श्रुति गारोड़िया लिखती हैं कि ओडिशा पुलिस साल 2002 तक कबूतर डाक सेवा का इस्तेमाल करती थी। 2002 में आधिकारिक तौर पर यह सेवा बंद कर दी गई।
पुलिस के पास 149 कबूतर
अभी भी ओडिशा पुलिस ने Belgian Homer प्रजाति के करीब 149 कबूतरों को पाल रखा है। इस प्रजाति के कबूतर अपनी रफ्तार के लिए जाने जाते हैं और बहुत महंगे बिकते हैं। कटक के आईजी सतीश कुमार गजभिए ( Satish Kumar Gajbhiye) रॉयटर्स से बातचीत में कहते हैं कि कबूतर डाक सेवा हमारी विरासत रही है और अब इन कबूतरों को संरक्षित करके रखा गया है ताकि आने वाली पीढ़ियों को इसकी जानकारी दी जा सके।
एक बार में 800 किमी का सफर
Belgian Homer प्रजाति के ये कबूतर 55 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ सकते हैं और एक बार में 500 मील या 800 किलोमीटर की दूरी तय कर सकते हैं। ओडिशा पुलिस की कबूतर डाक सेवा के लिए काम करने वाले परशुराम नंदा कहते हैं कि जब कबूतर 5-6 हफ्ते के होते हैं तभी से इनकी ट्रेनिंग शुरू कर दी जाती है। धीरे-धीरे दूरी बढ़ाई जाती है। ट्रेनिंग के 10 दिनों के अंदर ही ये कबूतर 30 किलोमीटर तक का सफर तय कर सकते हैं और वापस आ सकते हैं। एक उम्र के बाद इन्हें वापस जंगल में छोड़ दिया जाता है।
तूफान में यही कबूतर आए थे काम
साल 1999 में जब ओडिशा में चक्रवाती तूफान आया था तब कबूतर डाक सेवा बहुत मददगार साबित हुई थी। तूफान के चलते टेलीफोन और रेडियो लाइनें लगभग चौपट हो गई थीं। तब एक जगह से दूसरी जगह मैसेज भेजने के लिए कबूतरों का ही इस्तेमाल किया गया था। साल 1982 में भी ओडिशा में भीषण तूफान आया था, तब कबूतर डाक सेवा बहुत मददगार साबित हुई थी।
कबूतरों के जरिए संदेश भिजवाने के लिए सबसे पहले मैसेज को बहुत हल्के पेपर पर लिखा जाता है, जिसे ओनियन पेपर भी कहते हैं। इसके बाद इसे एक कैप्सूल में भरकर कबूतर के पैर में बांध दिया जाता है।
जब पंडित नेहरू ने किया था इस्तेमाल
कबूतर डाक सेवा से जुड़ा एक और दिलचस्प किस्सा पंडित जवाहरलाल नेहरू से जुड़ा है। अप्रैल 1948 में पंडित नेहरू ओडिशा के दौरे पर थे। वे संबलपुर गए। वहां से कटक में उनकी सभा होने वाली थी। पंडित नेहरू चाहते थे कि सभा में वक्ताओं के बैठने की अलग व्यवस्था हो। तब इसी कबूतर डाक सेवा के जरिये संबलपुर से कटक के अधिकारियों को मैसज भेजा गया था।