लहर कला

द इंडियन एक्सप्रेस ने आरटीआई से जानकारी जुटा यह बताया था कि 2011 से 2022 के बीच लगभग 70,000 भारतीयों ने अपना पासपोर्ट सरेंडर कर दिया। हालांकि, विदेश मंत्रालय मंत्री वी मुरलीधरन ने संसद में बताया कि विदेशी धरती पर भारतीय दूतावासों में छोड़ी गई नागरिकताओं की गिनती संख्या को और बढ़ा देती है।

यह कोई नई बात नहीं है कि भारतीय हमेशा भारत छोड़ने के लिए उत्सुक रहे हैं। 1980 के दशक में बड़े हो रहे किसी भी व्यक्ति को यह याद होगा जिसमें हम विदेश में बसे चाची या चाचा का स्वागत करते थे, जो हमारे लिए चॉकलेट और अन्य उपहार लाए होते थे। उन दिनों इन्हीं रिश्तेदारों के बहाने अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा जाने का भी अवसर मिल जाता था।

उदारीकरण से पहले विदेशों में बसने वाले ऐसे लोगों को भारत की उपलब्धि के तौर पर देखा जाता था। हालांकि आज जो भारतीय विदेशों में बसने के इच्छुक हैं, उनकी तुलना पूर्ववर्तियों से नहीं की जा सकती। पलायन अब दुर्लभ एक प्रतिशत लोगों द्वारा किया जा रहा है, जो सुशिक्षित और समझदार हैं। वह मोंटे कार्लो (यूरोप) के अपने घरो में रहते हुए दिल्ली को नापसंद करने लगे हैं।

नागरिकता: एक भावनात्मक मुद्दा

शायद यह पुरानी अवधारणा है कि नागरिकता एक भावनात्मक मुद्दा है और सीमाओं व राष्ट्रों को बॉर्डरलेस होना चाहिए। इस अवधारणा के तहत राष्ट्र को एक काल्पनिक संस्था माना जाता है। यह पृथ्वी को अंतरिक्ष को एक समग्र ग्रह के रूप में देखने जैसा है। एक साधन संपन्न व्यक्ति भी शायद ऐसा ही महसूस करता है, जब आपके पास ग्रह पर घूमने के लिए पैसा हो तो मनुष्य द्वारा बनाई गई सीमाएं अनावश्यक रूप से प्रतिबंधात्मक होती हैं।

हममें से जो लोग स्कूल में राष्ट्रीय प्रतिज्ञा का पालन करते हुए बड़े हुए हैं, उनके लिए यह थोड़ा अजीब है कि कोई इतनी आसानी से कैरेबियाई देश का नागरिक कैसे बन सकता है, जिसका हमारे अतीत या भविष्य से कोई संबंध नहीं है; लेकिन इसमें सुंदरता भी निहित है, कि इतने सारे भारतीय आत्मविश्वास से यह सुनिश्चित करते कर रहे हैं कि दुनिया उनकी मूल कल्पना से कहीं अधिक संभावनाएं प्रदान करती है।

आवागमन की स्वतंत्रता धन का सबसे बड़ा लाभ है; अब जब साइप्रस और माल्टा जैसे देश खुलकर अपनी नागरिकता बेच रहे हैं। कुछ चुनिंदा लोगों के लिए दुनिया सचमुच उनकी मुट्ठी में है। अमीर लोगों की डिनर पार्टी की बातचीत एंटीगुआ बनाम पुर्तगाल की खूबियों के इर्द-गिर्द घूमती है। दूसरी तरफ देशभक्ति का बोझ पीछे रह गया गरीब और मध्यम वर्ग ढो रहा होता है।

फिल्मों में भी दिखती है इस बदलाव की झलक

भारतीयों की सामूहिक कल्पना में राष्ट्रीय पहचान हमेशा इतिहास के कालखंडों से जुड़ी रही है, जिसे हिंदी सिनेमा में सटीक रूप से दर्शाया गया है। 1970 के दशक की हिट फिल्म पूरब और पश्चिम में, पश्चिम में समृद्धि के बावजूद जीवन को निराशाजनक रूप से सतही रूप में चित्रित किया गया है, जबकि 90 के दशक में उदासीन एनआरआई ने “आई लव माई इंडिया” जैसे गीतों के साथ स्क्रीन पर गाने गाए थे।

वर्तमान में कम से कम स्क्रीन पर मातृभूमि को चमकते भारत के रूप में शायद ही कभी चित्रित किया जाता है। ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म लोगों के बीच की कहानियां, जातिगत असमानताओं, भेदभाव और बलात्कार की क्रूर वास्तविकताओं को दिखा रही हैं।