साल 1857 की क्रांति से ठीक पहले आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर (Bahadur Shah Zafar) को मुगल साम्राज्य का अंत साफ दिखाई देने लगा था। बहादुर शाह जफर ब्रिटिश वायसराय (गवर्नर जनरल) लॉर्ड डलहौजी को लगातार चिट्ठियां लिखकर बस एक ही गुजारिश कर रहे थे कि कि उनके बाद उनकी बेगम और शहजादे जवांबख्त को कोई तकलीफ ना हो। लेकिन डलहौजी ने दो टूक कह दिया था कि यह संभव नहीं है कि जफर की मौत के बाद उनकी बेगम और शहजादों को वजीफा मिलता रहे।
ब्रिटिश हुकूमत के खतरे से सिर्फ बहादुर शाह जफर (Bahadur Shah Zafar) अकेले परेशान नहीं थे। बल्कि उनके दरबार के शाही अफसर, दरबारी, जौहरी, खानसामे, पहरेदार, गायक और दरबारी शायर भी परेशान थे। जिनमें मिर्जा गालिब भी शामिल थे। इतिहासकार विलियम डैलरिंपल (William Dalrymple) अपनी किताब ‘द लास्ट मुगल’ (The Last Mughal) में लिखते हैं कि गालिब और उनके दोस्त आरामतलबी के शिकार थे। उनके पास आमदनी का कोई जरिया नहीं था। जो थोड़ा-बहुत था, वो बहादुर शाह जफर का कद घटने के बाद और भी घट गया।
पालकी में बैठ इंटरव्यू देने गए गालिब
मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) कश्मकश से जूझ रहे थे। इसी बीच उनके पास दिल्ली कॉलेज में फारसी का प्रोफेसर बनने का मौका आया। गालिब पालकी में बैठकर इंटरव्यू के लिए पहुंचे लेकिन कॉलेज के गेट पर पहुंचकर उन्होंने उतरने से इंकार कर दिया। गालिब ने आदेश दिया कि जब तक कॉलेज के सेक्रेटरी थॉमसन साहब, गेट पर उनका स्वागत करने नहीं आएंगे, वो पालकी से नहीं उतरेंगे।
गेट पर पहुंच रख दी अजीब शर्त
विलियम डैलरिंपल (William Dalrymple) लिखते हैं कि काफी देर तक बहस चलती रही। इसके बाद थॉमसन गेट पर आए और गालिब (Mirza Ghalib) को समझाया कि उनका औपचारिक स्वागत गवर्नर के दरबार के लिए तो उचित हो सकता है, लेकिन ऐसे हालात में ठीक नहीं है। क्योंकि वह खुद नौकरी के लिए इंटरव्यू देने आए हैं और उम्मीदवार की हैसियत से वहां पहुंचे हैं। इस पर गालिब ने जवाब दिया कि मैंने सरकारी नौकरी करना इसलिए मंजूर किया था कि मेरी इज्जत ज्यादा बढ़ेगी, इसलिए नहीं कि घट जाए। थॉमसन ने कहा मैं सरकारी नियमों का पाबंद हूं…। इस पर गालिब बिफर पड़े और गेट से ही वापस चले गए।
जौक के मरने के बाद बादशाह ने बना लिया था अपना उस्ताद
गालिब को सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात की थी कि बहादुर शाह जफर (Bahadur Shah Zafar) उनके विरोधी शेख इब्राहिम जौक को ज्यादा तरजीह और तन्ख्वाह देते थे। गालिब ने कई मौकों पर बादशाह को खत लिखकर इसकी शिकायत भी की। आखिरकार 1854 में जब जौक की मृत्यु हुई तब बहादुर शाह जफर ने आखिरकार गालिब को अपना उस्ताद नियुक्त कर लिया और वही तनख्वाह बांध दी, जो जौक को मिलती थी। इससे गालिब ने चैन की सांस ली।