बात 1996 की है। मई का महीना था। राजनीतिक माहौल अनिश्चितताओं से भरा था। लोकसभा चुनाव के नतीजे आए थे, पर किसी पार्टी को बहुमत नहींं मिला था। भाजपा लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी थी। शंकर दयाल शर्मा राष्ट्रपति थे। उन्होंने सबसे बड़ी पार्टी (भाजपा) के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को राष्ट्रपति भवन बुलाया और सरकार बनाने की चिट्ठी पकड़ा दी। इस फैसले से सियासी पारा अचानक चढ़ गया।
इस बात पर बहस छिड़ गई कि क्या ऐसी स्थिति में सबसे बड़ी पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के लिए बुलाया जा सकता है? इस सवाल का स्पष्ट जवाब संविधान में नहीं है। कानूनी विशेषज्ञ भी इस सवाल पर बंटे हुए थे।
नानी पालकीवाला, के.के. वेणुगोपाल, एच.आर. खन्ना आदि विशेषज्ञ इस बात के पक्षधर थे कि सबसे बड़ी पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका देना सही है। लेकिन, सोली सोराबजी और राजीव धवन की राय अलग थी।
खुद वाजपेयी को भी नहीं था अंदाज कि मिलेगा पीएम बनने का ऑफर
भाजपा को 161 सीटें (कांग्रेस से 21 ज्यादा) मिली थीं। सरकार बनाने के लिए 272 सांसद चाहिए थे। बड़ा फासला था। ऐसे में राष्ट्रपति के फैसले से खुद अटल बिहारी वाजपेयी भी हैरान थे। जब उन्हें राष्ट्रपति भवन से बुलावा आया तो उन्हें लगा था कि लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी का नेता होने के नाते उनसे सरकार बनाने की संभावनाएं तलाशने के लिए कहा जाएगा। लेकिन, राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने वाजेपयी को तो प्रधानमंत्री नियुक्त करने की चिट्ठी ही सौंप दी और लोकसभा में बहुमत साबित करने के लिए दो सप्ताह का वक्त दे दिया।
सत्ता के गलियारों में छिड़ गई थी अलग ही चर्चा
वरिष्ठ पत्रकार और 1998 से 2004 के बीच पीएमओ में अटल बिहारी वाजपेयी के मीडिया प्रभारी रहे अशोक टंडन अपनी किताब ‘द रिवर्स स्विंग’ में अपनी निजी डायरी के हवाले से लिखते हैं कि उस समय सत्ता के गलियारों में विमला शर्मा (तत्कालीन राष्ट्रपति की पत्नी) के नाम की भी चर्चा होने लगे थे। लोग दबी जुबान से कहने लगे थे कि प्रथम महिला अटल बिहारी वाजपेयी की भी बहुत बड़ी फैन हैं और उन्होंने ही पति (राष्ट्रपति) से सिफारिश करके उन्हें प्रधानमंत्री बनवा दिया।
प्रमोद महाजन अड़े थे कि मौका मिला है तो सरकार बनाए भाजपा
खैर, वाजपेयी को जब चिट्ठी मिल गई तो उन्होंने भाजपा के बड़े नेताओं को सारी बात बताई। पार्टी नेताओं में यह सुन कर कोई खास उत्साह नहीं था। लाल कृष्ण आडवाणी समेत ज्यादातर नेताओं की राय थी कि सदन में शक्ति-परीक्षण में हारने के बजाय अभी ही सरकार बनाने की पेशकश ठुकरा देनी चाहिए। लेकिन, प्रमोद महाजन ऐसा नहीं चाहते थे।

प्रमोद महाजन ने तमाम मुश्किल झेलते हुए बीजेपी के बड़े नेताओं को इस बात के लिए राजी कर लिया कि कम से कम सरकार बना कर कोशिश तो करें। उन्होंने तर्क दिया कि इससे विपक्षी दलों की नजर में भाजपा अछूत और सदा विपक्ष में बैठने वाली पार्टी नहीं रह जाएगी।
वाजपेयी पहले भाजपाई प्रधानमंत्री बने। भाजपा के तमाम नेताओं ने खूब कोशिश की। लेकिन बीजेपी को एक भी बाहरी सांसद का समर्थन नहीं मिला। 14 दिन का वक्त था। अटल सरकार एक ऐसे विश्वास प्रस्ताव के साथ सदन में आई जिसका गिरना तय था। 27 मई, 1996 को सरकार के अगुआ के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी ने करीब एक घंटे का जोरदार भाषण दिया और अंत में अपने त्यागपत्र की घोषणा कर दी। बाद में एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनी। हालांकि, यह सरकार भी ज्यादा दिन नहीं चल सकी।
1996 में भले ही भाजपा किसी दल का समर्थन नहीं जुटा सकी, लेकिन सरकार बनाने का फायदा ये हुआ कि 1998 में कई पार्टियों के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन हो सका। इसके चलते 1998 और 1999 में भी भाजपा के नेतृत्व में केंद्र की सरकार बनी और दोनों बार अटल बिहारी वाजपेयी ही प्रधानमंत्री बने।
वाजपेयी को राष्ट्रपति बनने का भी था ऑफर
2002 में अटल बिहारी वाजपेयी को भाजपा के ही लोगों ने प्रस्ताव दिया कि वे राष्ट्रपति बन जाएं और लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बना दिया जाए। लेकिन, वाजपेयी ने यह कह कर इसे नहीं माना कि इससे गलत परंपरा की शुरुआत होगी। टंडन ने किताब में इस प्रसंग के बारे में भी लिखा है, जिसे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।