1947 से 1977 तक अकेले दम पर केंद्र में सरकार बनाने वाली कांग्रेस का वोट शेयर 1984 से लगातार गिरता जा रहा है। आंकड़ों के नजरिये से समझें तो 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 48.12 प्रतिशत वोट मिले। लेकिन 1989 में यह आंकड़ा गिरकर 39.53 प्रतिशत और 1991 में 36.40 प्रतिशत हो गया।

1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिलने वाले वोटों में बहुत बड़ी कमी आई और उसके द्वारा हासिल किए गए वोटों का आंकड़ा 28.80 प्रतिशत रहा। 1998 में भी यह आंकड़ा गिरा और कांग्रेस को 25.82 प्रतिशत वोट मिले हालांकि 1999 में कांग्रेस ने इसमें थोड़ा सा सुधार किया और इस चुनाव में उसे मिलने वाले वोटों का प्रतिशत 28.30 रहा।

2014, 2019 में आई जबरदस्त गिरावट

साल 2004 में कांग्रेस की अगुवाई वाले यूनाइटेड प्रोगेसिव एलायंस (यूपीए) ने सत्ता में वापसी की थी और तब कांग्रेस को 26.53 प्रतिशत वोट मिले थे। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उसे मिलने वाले वोट प्रतिशत में थोड़ा सुधार किया और सत्ता में वापसी की थी। तब उसे 28.55 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा था और उसका वोट प्रतिशत गिरकर 19.31 प्रतिशत हो गया था।

2019 के लोकसभा चुनाव में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी कांग्रेस को कमोबेश इतने ही वोट मिले और वह 19.46 प्रतिशत वोट ही हासिल कर सकी।

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कांग्रेस के गिरते वोट शेयर का ग्राफ (PC- TCPD)

1984 के बाद अपने दम पर नहीं बना सकी सरकार

यहां इस बात को याद रखना जरूरी होगा कि 1984 के बाद से कांग्रेस अपने दम पर केंद्र में सरकार नहीं बना पाई है। 1984 में जब उसे 400 से ज्यादा सीटें मिली थी तो उसके पीछे एक बड़ी वजह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या थी। क्योंकि तब कांग्रेस को बड़ी संख्या में सहानुभूति वोट मिले थे।

लेकिन 1989 में जब पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने बोफोर्स तोप सौदे में गड़बड़ी को मुद्दा बनाया तो कांग्रेस को जबरदस्त नुकसान हुआ। उसके बाद हालांकि पार्टी ने 1991 से 1996 तक और फिर 2004 से 2014 तक केंद्र में सरकार चलाई लेकिन इसके लिए उसे सहयोगी दलों का सहारा लेना पड़ा।

सालवोट शेयरसीट
198448.12414
198939.53197
199136.40 244
199628.80140
199825.82141
199928.30114
200426.53145
2009 28.55206
201419.3144
201919.4652

सीटों में भी आई गिरावट

सीटों के मामले में भी कांग्रेस का प्रदर्शन (एक-दो मौकों को छोड़ दें तो) 1984 के बाद से ही खराब रहा है। 1984 में उसे जहां 414 सीटें मिली थीं, वहीं 1989 में यह आंकड़ा गिरकर 197 हो गया था। 1991 में कांग्रेस ने इसमें थोड़ा सा सुधार किया और वह 244 सीट जीतने में सफल रही लेकिन 1996 में एक बार फिर उसका प्रदर्शन खराब रहा और वह सिर्फ 140 सीट ही जीत सकी।

1998 में उसे 141 सीट मिलीं लेकिन 1999 में वह 114 सीटों पर आकर रुक गयी। 2004 में जब उसने सत्ता में वापसी की थी तो उसे 145 सीटों पर जीत मिली थी। 2009 में उसने अपना प्रदर्शन सुधारा और 206 सीटें जीती लेकिन साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही कांग्रेस की हालत लगातार खराब होती जा रही है। 2014 में पार्टी को सिर्फ 44 सीटें मिली थी और 2019 में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी वह सिर्फ 52 सीटें ही हासिल कर सकी।

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कांग्रेस के गिरते सीट शेयर का ग्राफ (PC- TCPD)

कांग्रेस के प्रदर्शन में आई लगातार गिरावट के लिए कुछ हद तक दल-बदल को जिम्मेदार ठहराया जाता है। वैसे पार्टी में दल-बदल 1950 से ही शुरू हो चुका था और 1967 में तो 438 नेताओं ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया था। यह मामला इतना गंभीर था कि पार्टी को 1985 में एंटी डिफेक्शन लॉ यानी दल-बदल विरोधी कानून लाना पड़ा था।

शरद पवार की बगावत

1975 में आपातकाल लगाए जाने की वजह से कांग्रेस में बड़ी टूट हुई और 1977 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आई) नाम से अलग संगठन बना लिया। 1978 में शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर एक समानांतर संगठन बना लिया और जनता पार्टी के समर्थन से वह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी बन गए। हालांकि बाद में शरद पवार कांग्रेस में लौट आए थे।

साल 1999 में जब शरद पवार, पीए संगमा और तारिक़ अनवर ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए उनके कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बनने का विरोध किया तो इन तीनों बड़े नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इसके बाद शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी का गठन किया और उन्होंने महाराष्ट्र में निश्चित रूप से कांग्रेस के आधार को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया। इसका नतीजा यह हुआ कि 1995 के बाद से ही कांग्रेस वहां अपने दम पर सरकार नहीं बना सकी।

शरद पवार ने अपनी आत्मकथा ‘अपनी शर्तों पर’ में खुद को लंबी रेस का घोड़ा बताया है। अपने पीएम न बनने का किस्सा बताते हुए उन्होंने लिखा है, “सोनिया नहीं चाहती थीं कि कोई भी ‘स्वतंत्र दिमाग’ वाला कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।” विस्तार से पढ़ने के लिए फोटो पर क्लिक करें:

NCP
NCP नेता शरद पवार (Express Archive Photo)

उत्तर प्रदेश में सत्ता में नहीं लौट सकी पार्टी

महाराष्ट्र की तरह ही हालत उत्तर प्रदेश की भी है। 1947 के बाद से लगभग 40 साल तक उत्तर प्रदेश कांग्रेस का गढ़ बना रहा। हालांकि साल 1967 में जाट समुदाय से आने वाले बड़े कांग्रेसी नेता चरण सिंह ने विद्रोह कर दिया था और संयुक्त विधायक दल के मुखिया के तौर पर 1967 में राज्य के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने थे।

परंपरागत वोटर में टूट

90 के दशक में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के उभार के बाद और बीजेपी द्वारा हिंदुत्व के मुद्दे को धार देने की वजह से कांग्रेस का समर्थक वोटर उससे छिटक गया। उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के मतदाता, मुसलमान और ब्राह्मण कांग्रेस के परंपरागत वोटर थे लेकिन अनुसूचित जाति वर्ग का एक बड़ा तबका बहुजन समाज पार्टी के साथ चला गया।

ब्राह्मण राम मंदिर आंदोलन के दौरान बीजेपी से जुड़ गए और मुस्लिम वोट सपा और बसपा के पास चला गया। इसका नतीजा यह हुआ कि 1989 के बाद से कांग्रेस राज्य की सत्ता में वापस ही नहीं लौट सकी।

बेअसर रहीं प्रियंका गांधी

कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव और 2022 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में पार्टी को जिंदा करने की बहुत कोशिश की लेकिन नतीजा शून्य रहा। 2019 के लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस अपनी परंपरागत सीट अमेठी भी हार गई जबकि 2022 के विधानसभा चुनाव में उसे सिर्फ दो सीट मिली और ढाई फीसद वोट ही मिले। उत्तर प्रदेश में जितिन प्रसाद, ललितेश त्रिपाठी, आरपीएन सिंह, राजेश मिश्रा, आचार्य प्रमोद कृष्णम जैसे बड़े नेताओं ने पार्टी का साथ छोड़ दिया।

सोनिया गांधी द्वारा रायबरेली की सीट खाली किए जाने के बाद से ऐसी चर्चा थी कि कांग्रेस के इस परंपरागत लोकसभा क्षेत्र से प्रियंका गांधी चुनाव लड़ सकती हैं। लेकिन कांग्रेस ने अब तक रायबरेली की सीट से उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है। वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के लिए लिखे अपने साप्ताहिक कॉलम ‘इनसाइड ट्रैक’ में बताया था कि प्रियंका ने अपने सहयोगियों को चुनावी तैयारी के निर्देश नहीं दिए हैं। क्या है वजह? विस्तार से जानने के लिए फोटो पर क्लिक करें:

Priyanka Gandhi
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (AICC) की महासचिव प्रियंका गांधी (PC- FB)

आंध्र में गर्त में पहुंची कांग्रेस

एक और राज्य आंध्र प्रदेश में कांग्रेस बेहद मजबूत थी लेकिन वहां के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद पार्टी कमजोर पड़ गई। उनके बेटे जगन मोहन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें दिला दी। आज जगन मोहन रेड्डी राज्य के मुख्यमंत्री हैं और कांग्रेस वहां गर्त में जा चुकी है। 2014 और 2019 के विधानसभा चुनाव में वहां पार्टी को जीरो सीट मिली थीं।

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आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के गिरते वोट शेयर का ग्राफ (PC- TCPD)

वर्तमान में कर्नाटक और तेलंगाना ही ऐसे राज्य हैं, जहां पर कांग्रेस की अपने दम पर मजबूती से सरकार चल रही है। उत्तर भारत में एकमात्र राज्य हिमाचल में कांग्रेस के अंदर जबरदस्त बगावत हो चुकी है और यह नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस वहां लंबे वक्त सत्ता में रह पाएगी क्योंकि पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते 6 विधायक बगावत कर बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।

धड़ाधड़ पार्टी छोड़ रहे विधायक

साल 2014 के बाद से ही अरुणाचल प्रदेश से लेकर उत्तराखंड, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के विधायक बगावत कर चुके हैं।

G-23 गुट ने कराई फजीहत

इसके अलावा साल 2020-2021 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने एक गुट बना लिया था जिसे G-23 गुट कहा जाता था। इस गुट की वजह से कांग्रेस को खासी फजीहत का सामना करना पड़ा था। तब यह सवाल जरूर उठा था कि वर्षों तक पार्टी के लिए काम करने वाले नेता भी आखिर पार्टी हाई कमान को आंख क्यों दिखा रहे हैं।

कांग्रेस नहीं बना सकी मजबूत गठबंधन

2024 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस विपक्षी दलों का एक ऐसा गठबंधन बनाने में कामयाब नहीं हो सकी जो एनडीए को जबरदस्त चुनौती दे सके। विपक्षी दलों में सबसे बड़ी पार्टी होने की वजह से उस पर ही यह जिम्मेदारी थी कि वह एक ऐसे गठबंधन की सूत्रधार बने जो एनडीए को सत्ता से बाहर करने का भरोसा जनता को दिला सके।

2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सामने करो या मरो वाले हालात हैं और अगर वह इस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने में कामयाब नहीं होती है तो उसके लिए खुद को राजनीतिक रूप से जिंदा रख पाना बेहद मुश्किल होगा।