‘जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी’ साल 1999 में LIC की इस टैगलाइन को मुद्रा एजेंसी ने तैयार किया था। टैगलाइन के अनावरण कार्यक्रम से जुड़े रहे डीडीबी मुद्रा ग्रुप के सीईओ और एमडी मधुकर कामथ याद करते हैं, ”उस वक्त LIC इस समस्या से जूझ रहा था कि उसे लोगों के बीच अपने बारे में बताना क्या है? LIC की पॉलिसी को सिर्फ बचत का साधन बताने से काम चलता नहीं और लोगों का ध्यान उनकी मौत केंद्रित कराना ज्यादा कठोर तरीका हो जाता है। उसी वक्त इस मध्य मार्ग की कल्पना की गई।”

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LIC से जुड़ा था भारत का पहला वित्तीय घोटाला

लोगों को जिंदगी के साथ और जिंदगी के बाद का भरोसा देने वाला LIC अपनी जिंदगी की शुरुआत में ही स्वतंत्र भारत के पहले वित्तीय घोटाले में फंस गया था। आजादी के बाद लोगों को आर्थिक सुरक्षा देने, जीवन बीमा को गाँव-गाँव शहर-शहर से जोड़ भारत के हर नागरिक को पर्याप्‍त आर्थिक सहायता उचित दरों पर उपलब्‍ध कराने के इरादे से 19 जून 1956 को संसद ने लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन एक्ट पारित किया गया। इस तरह 1 सितंबर 1956 को LIC अस्तित्व आया।

लेकिन LIC की स्थापन के करीब एक साल बाद ही सांसद फीरोज गांधी ने सदन में एलआईसी से जुड़े घोटाले का खुलासा कर दिया था। दरअसल फीरोज के पास इसका सबूत था कि LIC ने सरकार के दबाव में आकर 1.24 करोड़ का बोगस स्टॉक खरीदा। इसके लिए निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार निवेश समिति से अनुमति नहीं ली गई। इस घोटाले को अंजाम दिया था कोलकता के उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा ने।

कैसे हुआ था घोटाला?

एलआईसी के गठन के वक्त सरकार ने इसमें पांच करोड़ रुपये की पूंजी लगायी थी। यानी तब यह सरकार के हाथों बनाया सबसे बड़ा संस्थान था। LIC अपनी नीतियों के तहत प्रतिष्ठित, बढ़िया रिकॉर्ड और उत्तम प्रबंधन वाली कंपनियों यानी ‘ब्लू चिप कंपनियों’ में पैसा लगा सकती थी। साल 1957 में LIC ने उन छहों कंपनियों के शेयर्स ऊंचे दाम या बाज़ार भाव से अधिक भाव पर खरीदे, जिनमें हरिदास मूंदड़ा का पैसा लगा था।

जबकि उन कंपनियों का रिकॉर्ड अच्छा नहीं था, इस वजह से उन्हें ‘ब्लू चिप कंपनियों’ की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता था। प्लान यह था कि मूंदड़ा अपनी कंपनी में सरकारी निवेश दिखाकर शेयर्स ज्यादा भाव में बेचेगा और मुनाफा कमाएगा। फिरोज गांधी ने आरोप लगाया कि सरकार ने मूंदड़ा को फायदा पहुंचाने के लिए उनकी कंपनियों नें निवेश किया।

बिगड़ गए रिश्ते

यह घोटाला व्यापारी, अफ़सर और नेता की तिकड़ी का नमूना था। घोटाले पर आए फैसले से स्पष्ट है कि इसमें नेहरू की कोई भूमिका नहीं थी। लेकिन इससे नेहरू की किरकिरी बहुत हुई क्योंकि मामले का खुलासा करने और सरकार की सबसे अधिक आलोचना करने वाले फीरोज गांधी नेहरू के दामाद थे।

बम्बई उच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज एमसी छागला की अध्यक्षता में जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में हरिदास मूंदड़ा को जालसाज़ी के लिए ज़िम्मेदार माना। मूंदरा को दो साल की सजा हुई। जस्टिस छागला ने वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी, वित्त सचिव एचएम पटेल और एलआईसी के कुछ अफ़सरों पर भी मुकदमा चलाने की बात कही। नेहरू ने वित्त मंत्री से इस्तीफा ले लिया लेकिन इस घोटाले की वजह से नेहरू और फीरोज गांधी के रिश्ते कभी सामान्य नहीं हो पाए।