Khaleda Zia Bangladesh: बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। 80 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंतिम सांस ली। जब भी बांग्लादेश का राजनीतिक इतिहास लिखा जाएगा, उसमें खालिदा जिया का नाम दर्ज होना तय है। बांग्लादेश की राजनीति और उसकी सियासी कहानियां उनके किरदार के बिना अधूरी हैं। उनके समर्थक भी हैं, उनके आलोचक भी, लेकिन उन्हें नज़रअंदाज़ कर जाए—ऐसा कोई नहीं। किसने सोचा था कि राजनीति से दूरी बनाए रखने वाली, अपने बच्चों में ही अपना संसार देखने वाली खालिदा जिया एक दिन देश की प्रधानमंत्री बनेंगी। लेकिन ऐसा हुआ। उन्होंने गृहिणी से सत्ता तक का लंबा सफर तय किया, शेख हसीना के साथ दशकों चली सियासी जंग लड़ी और अब इस अध्याय पर पूर्णविराम लग चुका है।
खालिदा जिया का जन्म 1945 को पश्चिम बंगाल में हुआ था। 15 साल की उम्र में उनकी शादी आर्मी ऑफिसर जियाउर रहमान से हो गई थी। जियाउर ने 1971 में पाकिस्तान से आजादी की कसम खाई थी और बांग्लादेश अस्तित्व में आया। 1977 में जियाउर रहमान सेना प्रमुख बन चुके थे, मिलिट्री वहां की सत्ता पर काबिज थी। ऐसे में जियाउर रहमान ने खुद को बांग्लादेश का राष्ट्रपति घोषित कर दिया। अब जियाउर रहमान के जैसे तौर-तरीके रहे, उनके दुश्मनों की तादाद भी बढ़ती रही। 20 बार उन्हें सत्ता से बेदखल करने की कोशिश हुई, लेकिन हर उन प्रयासों को कुचल दिया गया।
ये वो दौर था जब बांग्लादेश में सैनिकों की भी हत्याएं हो रही थीं, एक अलग आक्रोश पैदा हो रहा था। फिर आर्मी ऑफिसरों के एक समूह ने ही बांग्लादेश के चटगांव में जियाउर रहमान को मौत के घाट उतार दिया, उनकी हत्या कर दी गई। अब जियाउर रहमान का जाना बांग्लादेश की तकदीर बदलने वाला रहा, उसकी किस्मत में एक नए नेता का जन्म होना था। वो नेता जिसे राजनीति की एबीसीडी भी नहीं पता थी, जो राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। यहां बात हो रही है खालिदा जिया की जो रहमान की हत्या तक सार्वजनिक जीवन से पूरी तरह दूर रहीं। लेकिन पति के गुजर जाने के बाद खालिदा को राजनीति में कदम रखना पड़ा।
1978 में बनी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की बागडोर जियाउर रहमान संभाल रहे थे, लेकिन उनकी हत्या के बाद खालिदा को ना चाहते हुए भी पार्टी में शामिल होना पड़ गया। शुरुआत तो एक कार्यकर्ता के रूप में की, लेकिन फिर बीएनपी की वाइस चेयरमेन तक बनीं। 1982 से बांग्लादेश में 9 सालों तक क्रूर मिलिट्री शासन चला, लोकतंत्र की गला घोंटा जा चुका था। उसी लोकतंत्र को बचाने के लिए खालिदा जिया को राजनीति में पूरी तरह सक्रिय होना पड़ा। उनकी बड़ी रैलियां बांग्लादेश में चर्चा का विषय बनने लगीं, भारी भीड़ बता रही थी खालिदा को जनसमर्थन हासिल हो रहा था।
मिलिट्री शासन के दौरान भी बांग्लादेश में चुनाव हुए, लेकिन हर बार खालिदा ने अपनी पार्टी को उस चुनाव में हिस्सा लेने से रोक दिया। उन्हें विश्वास था कि उनकी पार्टी का सही समय आएगा जब चुनाव लड़ा भी जाएगा और जीता भी। लेकिन वे किसी भी कीमत पर एक ऐसी लोकत्रांतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनना चाहती थी जहां सिर्फ नाम के लिए चुनाव हो और सत्ता सेना के हाथों में ही रह जाए। इसी वजह से कई सालों तक खालिदा जिया सिर्फ आंदोलन करती रहीं, जमीन पर जनसमर्थन हासिल करती रहीं।
खालिदा ने उस दौर में भी ऐसा प्रभाव छोड़ा था कि उन्हें रोकने के लिए हाउस अरेस्ट करना पड़ा, सेना तक को अहसास था कि इस महिला को अगर आजाद छोड़ा गया तो बांग्लादेश से सेना का शासन जाना तय है। लेकिन खालिदा किसी से नहीं डर रही थीं, वे तो अपना आंदोलन के साथ आगे बढ़ती गईं, सेना के सामने ना झुकी ना कोई समझौता किया।
1991 में बांग्लादेश में चुनाव हुए और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी सबसे बड़ा दल बन उभरी। खालिदा जिया की कई सालों की मेहनत रंग लाई और वे बांग्लादेश की पहली महिला प्रधानमंत्री बन गईं। प्रधानमंत्री बनते ही खालिदा ने कुछ ऐसे फैसले लिए जो बांग्लादेश के लिए भविष्य के लिए निर्णायक साबित हुए। खालिदा ने सत्ता में आते ही शिक्षा पर खास ध्यान दिया और प्राइमरी स्कूल सभी के लिए मुफ्त कर दिया। पांच साल तक खालिदा ने सरकार चलाई, लेकिन एक और महिला उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनीं। नाम था- शेख हसीना और उनकी पार्टी आवामी लीग।
बांग्लादेश में इन दो महिलाओं की सियासी जंग को बैटल ऑफ बेगम्स के नाम से जाना जाता है। खालिदा का अपना सर्मथन था तो शेख हसीना की भी अपनी राजनीति। एक के पति की हत्या हुई दूसरे की पिता की। दोनों ही नेताओं का परिवार सियासी रूप से बांग्लादेश में सक्रिय रहा, आजादी में भूमिका निभाई, लेकिन फिर वैचारिक मतभेदों ने दोनों की राहें अलग कर दी। 1991 में जब खालिदा प्रधानमंत्री बनीं, विरोधी पक्ष में सबसे बड़ी आवाज शेख हसीना रहीं। 1996 में जब शेख हसीना प्रधानमंत्री बनीं, खालिदा ने विपक्षी कुर्सी संभाली।
अब तक तक तो इन दोनों नेताओं की लड़ाई सिर्फ राजनीति तक सीमित थी, लेकिन फिर 2004 में खालिदा जिया की रैली में एक ग्रेनेड अटैक हुआ, आवामी लीग की प्रमुख बाल-बाल बचीं। तब खालिदा जिया, उनके बेटे तारिक रहमान पर हमले के आरोप लगे। बाद में उनका बेटा सभी आरोपों से मुक्त जरूर हुआ, लेकिन नफरत की खाई पैदा हो गई थी। माना जाता है कि इस घटना के बाद ही शेख हसीना और खालिदा जिया की जंग सियासी के साथ साथ निजी भी हो गई।
खालिदा जिया का तीसरा कार्यकाल 2001 में शुरू हुआ जब उन्होंने कई इस्लामिक पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाई। एक ऐसा सियासी गंठबंधन तैयार हुआ कि बांग्लादेश की दो तिहाई सीटों पर खालिदा की पार्टी का कब्जा हुआ। सरकार बनाने के बाद खालिदा ने एक बड़ा फैसला लिया, संसद में 45 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गईं। लेकिन फिर 2006 आते-आते खालिदा ने पीएम पद से इस्तीफा दे दिया। चुनाव कुछ ही महीनों में होने थे, लेकिन सड़कों पर दंगों की आग ऐसी फैली कि सेना को हस्तक्षेप करना पड़ा और संभावित चुनाव बस टलते चले गए। इस दौरान एक अंतरिम सरकार जरूर बनी, उसने शेख हसीना और खालिदा जिया दोनों के खिलाफ ही एक्शन लिया। शेख हसीना का डिटेंशन हुआ और खालिदा भी भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार हुईं।
2008 में फिर मिलिट्री शासन के दौरान ही चुनाव हुए और शेख हसीना सत्ता में आ गईं। यहां से खालिदा जिया की चुनौतियां बढ़ गईं और सत्ता से उनकी दूरी बढ़ती चली गई। शेख हसीना ने भी खालिदा के साथ दुश्मनी पूरी शिद्दत से निभाई, उनके कार्यकाल के दौरान ही सबसे ज्यादा मामले बीएनपी नेता पर दर्ज हुए। खालिदा पर 32 से ज्यादा केस चले। 2014 में जब बांग्लादेश में चुनाव हुए, बीएनपी ने फिर उसका बॉयकॉट कर दिया और आवामी लीग सत्ता में लौट आई।
अब यहां शेख हसीना सत्ता का सुख भोगती रहीं, वहीं खालिदा भ्रष्टाचार के कई मामलों में फंसती चली गईं। ऐसा ही एक मामला उनके दूसरे कार्यकाल से जुड़ा था। आरोप था कि खालिदा ने 2003 में कार्गो टर्मिनलों से जुड़े ठेके दिलाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया। कहां तो यहां तक गया कि खालिदा अपने बेटे के इशारों पर कुछ चुनिंदा ठेकेदारों को फायदा पहुंचा रही थीं। अब 2018 में उसी मामले में खालिदा को दोषी पाया गया और पांच साल की सजा सुना दी गई। उस सजा की वजह से खालिदा ढाका की पूरी केंद्रीय जेल में रखी गईं जहां वे इकलौती कैदी थीं। सजा उन्हें इतनी लंबी मिली कि वे खुद कोई सार्वजनिक पद संभाल नहीं सकती थीं।
इस बीच बांग्लादेश की राजनीति ने भी कई करवटें लीं। शेख हसीना के खिलाफ आक्रोश बढ़ा और छात्र आंदोलनों ने उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। आज बांग्लादेश में अंतरिम सरकार है और आवामी लीग और बीएनपी दोनों एक बार फिर सत्ता में वापसी की कोशिश कर रही हैं। लेकिन इतना तय है कि बांग्लादेश की राजनीति अब उस दौर में कभी वापस नहीं लौटेगी, जिसे दशकों तक ‘बैटल ऑफ बेगम्स’ के नाम से जाना गया।
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