एक दौर था जब कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की तूती बोलती थी। उन्हें शेर-ए-कश्मीर कहा-माना जाता था, लेकिन 1965-70 के बाद से उनकी छवि ऐसे शेर की हो गई जो केवल गुर्रा सकता है। काट नहीं सकता। कश्मीर समस्या के समाधान को लेकर शेख अब्दुल्ला का जो रुख था, वह भी उनकी हैसियत गिरने की एक वजह थी।
शेख अब्दुल्ला ने 1965 में ‘फॉरेन अफेयर्स’ में एक लेख लिखा। इसमें उन्होंने लिखा कि संयुक्त राष्ट्र कश्मीर की सुरक्षा की गारंटी ले या दस साल तक संयुक्त राष्ट्र कश्मीर का ट्रस्टी बन जाए। इस मियाद के बाद संयुक्त राष्ट्र अपनी निगरानी में रायशुमारी करके तय करे कि कश्मीर के लोग कश्मीर को भारत के साथ रखना चाहते हैं या पाकिस्तान के साथ, या फिर स्वतंत्र ही रहना चाहते हैं।
शेख अब्दुल्ला ने ऐसे संकेत दिए कि उनके इस विचार को सी. राजगोपालाचारी, जयप्रकाश नारायण (जेपी) और शिव राव जैसे दिग्गज नेताओं का समर्थन हासिल है। अब्दुल्ला जब मध्य पूर्व और यूरोप की यात्रा पर गए तो वहां भी उन्होंने अपने इस विचार को खुले आम प्रचारित किया। 8 मई, 1965 को जब अब्दुल्ला दिल्ली हवाईअड्डे पहुंचे तो लैंड करते ही उनके विमान में पुलिस घुस गई। दो घंटे बाद शेख अब्दुल्ला और उनके साथ चल रहे अफजल बेग एक दूसरे विमान में बैठा दिए गए थे। इस विमान की मंजिल थी बेंगलुरु।
शेख अब्दुल्ला पर चीन-पाकिस्तान से मदद मांगने का आरोप
शेख अब्दुल्ला को भारत के दुश्मनों, खास कर चीन और पाकिस्तान, से साठगांठ और कश्मीर की स्वतंत्रता के लिए मदद हासिल करने की कोशिश के आरोप में नजरबंद किया जा चुका था।
अब्दुल्ला को पहले ऊंटी ले जाया गया। लेकिन, वहां शुक्रवार को नमाज के दौरान उन्हें लोग घेर लिया करते थे। इस वजह से उन्हें जल्द ही कोडाईकनाल भेज दिया गया। वहां के ‘कोहिनूर बंगला’ में अब्दुल्ला को पत्नी और छोटी बेटी सुराया के साथ रखा गया। उन्हें शहर की हद पार करने की इजाजत नहीं थी। अब्दुल्ला बंगले में पत्नी के साथ कश्मीरी खाना पकाते और सैर किया करते थे। उनकी पत्नी को देश में कहीं भी रहने की आजादी थी, लेकिन उन्होंने पति के साथ ही रहने का फैसला किया था। उन्हें और सुराया को अब्दुल्ला के साथ बिना किसी व्यस्तता के रहने का मौका मिला था। यहां अब्दुल्ला राजनीतिक सलाह के लिए पत्नी पर काफी हद तक निर्भर हो चुके थे।
अब्दुल्ला ने यहां तमिल सीखना शुरू किया और इसके लिए एक ट्यूटर रख लिया। वह सुराया को भी टाइपिंंग और शॉर्टहैंड की ट्यूशन दिलवाने लगे थे। यहां कोई भागदौड़ नहीं होने के बावजूद अब्दुल्ला को यह जिंंदगी रास नहीं आ रही थी। उनकी सेहत बिगड़ने लगी। वह डायबिटीज के मरीज बन गए। सुराया के मुताबिक, अब्दुल्ला को शक होने लगा था कि सरकार उन्हें धीमा जहर दे रही है।
इस बीच, भारत और पाकिस्तान में जंग (1965) छिड़ गई थी। सितंबर, 1965 में अमेरिका और सोवियत संघ की दखलअंदाजी से लड़ाई रुक हुई थी। उधर, शेख अब्दुल्ला की रिहाई की कोशिशें भी चल रही थीं। अक्तूबर में जेपी के एक सहयोगी ओर विनोबा भावे ने अब्दुल्ला से मुलाकात की। इस मुलाकात में अब्दुल्ला ने पाकिस्तान की निंंदा करने से साफ इनकार कर दिया।
हालांकि, करीब छह महीने बाद अब्दुल्ला ने अपना रुख थोड़ा नरम किया। इस दौरान और इसके बाद चले कई घटनाक्रम के बाद 23 जून, 1966 को जेपी ने इंदिरा गांधी को एक लंबा खत लिखा। इसमें उन्होंने कश्मीर समस्या के हल को फौरी जरूरत बताया और इस मकसद से शेख अब्दुल्ला को रिहा करने का अनुरोध भी किया। लेकिन इंदिरा गांधी ने इसे नहीं माना। कुछ तो अपनी मजबूरियों के चलते और कुछ अपने सलाहकारों व शुभचिंंतकों की सलाह की वजह से।
…तो पाकिस्तान करवा देगा अब्दुल्ला की हत्या
करण सिंंह (जो तब जम्मू कश्मीर के गवर्नर थे) ने तर्क दिया कि जब दुनिया को पता चलेगा कि शेख अब्दुल्ला भारत सरकार से बातचीत करने के लिए तैयार हो गए हैं तो पाकिस्तान उनकी रिहाई होने पर हत्या करवा देगा। इससे कश्मीर जल उठेगा और इंदिरा गांधी की कुर्सी भी जा सकती है। इसलिए शेख अब्दुल्ला की रिहाई के बारे में तभी सोचा जाए जब इंदिरा गांधी अपनी स्थिति मजबूत कर लें और 1967 के चुनाव में कांग्रेस की मजबूती भी दिखा दें।
इंदिरा गांधी ने शेख को रिहा करने के बजाय जेपी को कोडाईकनाल जाकर उनसे मिलने की इजाजत दी। उधर, 1967 में चुनाव हुए। इसमें कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। जम्मू कश्मीर के चुनाव में भी कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा। अब्दुल्ला चाहते हुए भी चुनाव नहीं लड़ सके।
पंडित लड़की की मुस्लिम से शादी पर भड़का दंगा
सितंबर-अक्तूबर 1967 में कश्मीर में दंगा भड़क गया। दंगे की वजह एक पंडित लड़की द्वारा उसके मुस्लिम बॉस से शादी कर लेना था। लड़की के पिता और कुछ हिंंदू संगठनों ने आरोप लगाया कि उसे अगवा कर जबरन इस्लाम कबूल करवा कर निकाह करवाया गया। हिंंदू-मुस्लिम भिड़ गए। श्रीनगर में कर्फ्यू लगाना पड़ा। हालात बेहद खराब हो गए। माना गया कि अब शांति बहाली एक ही आदमी के वश की बात रह गई है और वह हैं शेख अब्दुल्ला। कई सांसदों ने अब्दुल्ला की रिहाई की मांग करते हुए एक पिटीशन पर दस्तखत किए। इनमें कांग्रेस के भी कई सांसद थे।
अब्दुल्ला अब कोडाईकनाल से दिल्ली के कोटला लेन में शिफ्ट कर दिए गए थे, ताकि उनकी बीमारियों का अच्छा इलाज हो सके। यहां भी अब्दुल्ला जिंंदगी में रम गए थे। वह अपने बंगले में ही तरह-तरह के फूल खिलाते थे और अपनी पसंद की पत्तीदार कश्मीरी सब्जियां भी उगाया करते थे। साथ ही, कई राजनयिक पार्टियों में मेहमान बन कर भी जाया करते थे।
इतना सब होने के बाद भी अब्दुल्ला अब लंबे संघर्ष से थका हुआ महसूस कर रहे थे और मसले का समाधान चाह रहे थे। पर, उनकी रिहाई से पहले सरकार अपने स्तर से उनका मत और मन समझ लेना चाहती थी। यह काम टी.एन. कौल को सौंपा गया। कौल विदेश सचिव थे और इंदिरा की सलाहकार मंडली के अहम सदस्य भी थे।
अड़े रहे अब्दुल्ला
अक्तूबर 1967 में कौल ने अब्दुल्ला से तीन बार मुलाकात की। 30 अक्तूबर को हुई आखिरी मुलाकात सौहार्दपूर्ण नहीं रही। पाकिस्तान को लेकर अब्दुल्ला और कौल की अलग-अलग राय के चलते माहौल गरम हो गया था। अब्दुल्ला कश्मीर मसले पर पाकिस्तान को एक पार्टी बनाए जाने पर अड़े थे। बैठक के अंत में उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि अब उनके पास कहने को कुछ नहीं है और अब जो करना है, वह भारत सरकार को करना है।
जनवरी, 1968 में शेख अब्दुल्ला की नजरबंदी खत्म कर दी गई। बिना शर्त। अब वह देश में कहींं भी घूमने के लिए स्वतंत्र थे।
