भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि उनकी आत्मकथा भारत से नहीं बल्कि लंदन (इंग्लैंड) छपे। इसके लिए उन्होंने विदेश में कुछ लोगों से संपर्क भी किया था। नेहरू ऐसा क्यों चाहते थे? आइए जानते हैं:

वीके कृष्ण मेनन और जवाहरलाल नेहरू पहली बार 1935 में मिले थे। नेहरू की आत्मकथा 1936 में छपी, जिसे उन्होंने 1934 में जेल में लिखना शुरू किया था। जवाहरलाल नेहरू जब अपनी आत्मकथा लिख रहे थे, उसे वे लंदन में छपवाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने एंग्लिकन मिशनरी, सी.एफ. एंडूज और इतिहासकार एडवर्ड थॉम्पसन से संपर्क किया था। लेकिन मेनन से मिलने के बाद वे समझ गए कि दूसरे किसी से बात करने की जरूरत नहीं है।

मेनन ने बदल दिया नेहरू की आत्मकथा का टाइटल

पत्रकार रामबहादुर राय ने अपनी किताब ‘भारतीय संविधान-अनकही कहानी’ (प्रभात प्रकाशन) में आत्मकथा के प्रकाशित होने की कहानी लिखी है, “वीके मेनन ने प्रकाशक खोजा। उनकी आत्मकथा ही नहीं छपवाई, बल्कि उसका कवर पेज भी स्वयं डिजाइन करवाया। उसका शीर्षक था- ‘जवाहरलाल नेहरूज ऑटोबायोग्राफी’, जबकि नेहरू ने अपनी आत्मकथा का शीर्षक ‘इन ऐंड आउट ऑफ प्रिजन’ सोचा था। यही उनके पत्रों में मिलता है। वैसे तो उनकी तीन पुस्तकें पहले ही छप गई थीं, लेकिन वे भारत में छपी थीं। अपनी आत्मकथा को वे लंदन में छपवाना चाहते थे। उन्होंने मेनन को लिखा कि मैं चाहता हूँ कि पुस्तक जल्द-से-जल्द छप जाए। अभी हिंदुस्तान के लिए इसका एक राजनीतिक महत्व है।”

राय ने आगे लिखा है, “वास्तव में पुस्तक का प्रयोजन अंतरराष्ट्रीय था। यह उसके छपने और पुस्तक के प्रभाव से पता चला। उससे जवाहरलाल नेहरू भारत के स्वाधीनता संग्राम के ऐसे प्रवक्ता के रूप में प्रकट हुए, जो भारतीय परिस्थिति को नैतिक और ऐतिहासिक ढंग से रखने में समर्थ है। उससे अंग्रेजों ने यह भी अनुभव किया कि इस व्यक्ति का मानसिक गठन हमारे जैसा है। लंदन में पुस्तक को खूब पढ़ा गया। उसके कई संस्करण निकले। उस पुस्तक ने जवाहरलाल नेहरू को अंतरराष्ट्रीय जगत में अपने पंख फैलाने का अवसर दिया।”

आत्मकथा छपवाने के लिए नेहरू ने मेनन को दे दी थी पावर ऑफ अटॉर्नी

राय मानते हैं कि नेहरू की आत्मकथा सिर्फ आत्मकथा नहीं थी। वह उससे कुछ ज्यादा थी। उसे छपवाने के लिए पं. नेहरू ने वीके मेनन को पावर ऑफ अटॉर्नी दी। वह एक मामूली-सी घटना मानी जाती, अगर उसका संबंध केवल उस पुस्तक तक ही सीमित होता। उनकी वह पावर ऑफ अटॉर्नी राजनीतिक रूप से भी मेनन के पास नेहरू के आजीवन बनी रही। मेनन-नेहरू संबंधों में वह दिखती है। भारत की चीन से हुई पराजय से भी वह टूटी नहीं।

11 साल PM रहने के बाद नेहरू चाहते थे किसी और को मिले मौका, दे दिया था इस्तीफा

जवाहरलाल नेहरू फरवरी 1958 में राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा भी भेज दिया था। दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद उन्हें लगने लगा था कि अब क‍िसी और को मौका म‍िलना चाह‍िए। नेहरू के इस्तीफे से देशभर में हंगामा मच गया था। विदेश तक से उनके लिए संदेश आने लगे थे। 

Nehru
फरवरी 1958 में दे दिया था इस्तीफा (Source: Express Archives)