लोकसभा चुनाव के नतीजों में मतदाताओं ने बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं दिया। बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 240 सीटों पर जीत मिली है और अब वह एनडीए के सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने जा रही है।
राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन सरकारों का दौर 1977 में पहली बार लोगों के सामने तब आया जब मोरारजी देसाई ने केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई। उनकी सरकार में चौधरी चरण सिंह, लाल कृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, बीजू पटनायक, प्रकाश सिंह बादल, जॉर्ज फर्नाडीज और शांति भूषण जैसे नेताओं को मंत्री बनाया गया था।
महत्वाकांक्षाओं और राजनीतिक तिकड़मों और गुटबाजी ने मोरारजी देसाई सरकार के कामकाज में मुश्किलें खड़ी की। कानून मंत्री शांति भूषण ने एक बार बताया था कि सरकार के कार्यकाल के दौरान 1978 में किस तरह हालत खराब हो गए थे।
शांति भूषण ने लिखा था, वह ऐसा मानते थे कि प्रधानमंत्री अपनी सरकार के दो वरिष्ठ सहयोगियों की मौत का इंतजार कर रहे थे और उन में से एक प्रधानमंत्री की मौत का इंतजार कर रहा था और इस तरह की सरकार का आगे चल पाना असंभव था। मोरारजी देसाई की सरकार सिर्फ दो ही साल चली और 1979 में गिर गई थी।

गठबंधन सरकारों में एक से ज्यादा राजनीतिक दल या एक से ज्यादा लोग मिलकर काम करते हैं और कई बार इनके विचार भी अलग-अलग होते हैं। अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो 1977 ऐसा पहला मौका नहीं था, जब देश में राष्ट्रीय स्तर पर कोई गठबंधन बना हो।
1946 में बनी अंतरिम सरकार भी गठबंधन सरकार ही थी
आजादी से पहले 1946 में जब देश में अंतरिम सरकार बनी थी तो यह भी और 1947 के बाद बनी सरकार भी गठबंधन सरकार ही थी। 1946 में बनी अंतरिम सरकार के ही नेतृत्व में भारत आजादी की ओर आगे बढ़ा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस सरकार के प्रमुख थे। इसमें कांग्रेस के दिग्गज नेता वल्लभ भाई पटेल के पास (गृह), राजेंद्र प्रसाद के पास (खाद्य और कृषि) और जगजीवन राम के पास श्रम मंत्रालय था।
इस सरकार में रक्षा मामलों के विशेषज्ञ के तौर पर अकाली दल से सरदार बलदेव सिंह और वित्त मामलों के विशेषज्ञ जॉन मथाई, मंत्री बनाए गए थे।
बैंकिंग और बीमा कंपनियों के कामकाज को समझने वाले पारसी व्यवसायी कुंवरजी होरमुसजी भाभा (कॉर्मर्स) के अनुभव का लाभ भी इस सरकार को मिला था।
हालांकि इन मंत्रियों के चुनाव को लेकर विवाद भी हुआ था। जैसे मौलाना आजाद और वल्लभभाई पटेल सरकार में भाभा को शामिल करने के फैसले से सहमत नहीं थे। आजाद का मानना था कि भाभा पारसी समुदाय के नेता नहीं हैं। जब मुस्लिम लीग ने सरकार में शामिल होने का फैसला किया तो मुस्लिम लीग को वित्त मंत्रालय की पेशकश वाले कांग्रेस के प्रस्ताव को लेकर वल्लभभाई पटेल और मौलाना आजाद की राय अलग-अलग थी।

मुस्लिम लीग को मिला था वित्त मंत्रालय
मौलाना आजाद का मानना था कि इतने अहम मंत्रालय का कांग्रेस के पास ना होना सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी करेगा। मुस्लिम लीग ने इस पेशकश को स्वीकार कर लिया था और जॉन मथाई की जगह लियाकत अली खान ने वित्त मंत्रालय संभाला था।
मौलाना आजाद के मुताबिक, जब लियाकत ने यह मंत्रालय संभाला तो उनकी मर्जी के बिना एक चपरासी की नियुक्ति भी नहीं की जा सकती थी।
पहली मंत्री परिषद में गैर कांग्रेसी चेहरे भी आए
भारत में आजादी के बाद जो पहली मंत्री परिषद बनी, उसमें जवाहरलाल नेहरू ने गठबंधन के फार्मूले को ही लागू किया। नेहरू ने 1946 में बनी अंतरिम सरकार के आधे से ज्यादा मंत्रियों को नई सरकार में भी शामिल किया। इसके साथ ही कुछ नए मंत्रियों की भी नियुक्ति की गई।
इन मंत्रियों में राजकुमारी अमृत कौर को स्वास्थ्य और एन.वी.गाडगिल को (खान एवं बिजली) मंंत्रालय दिया गया था। इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि इन दोनों नेताओं को कैबिनेट में शामिल करने के मामले में नेहरू ने महात्मा गांधी की सलाह ली और कांग्रेस से अलग भी अलग-अलग राजनीतिक दलों के पढ़े-लिखे लोगों को सरकार में शामिल किया। इसका मतलब यह था कि कैबिनेट में शामिल होने के लिए कांग्रेस का सदस्य होना जरूरी नहीं था।
इस वजह से सरकार में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर (कानून मंत्रालय), कारोबारी आर के शनमुखम चेट्टी (वित्त मंत्रालय) और जनसंघ से आने वाले डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने (उद्योग और आपूर्ति) मंत्रालय संभाला। इस सरकार में जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने और उप प्रधानमंत्री की कुर्सी वल्लभ भाई पटेल ने संभाली।

प्रोफेसर मॉरिस जोन्स अपनी किताब द गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स ऑफ़ इंडिया में लिखते हैं कि 1947 की सरकार में कई ऐसे लोग शामिल थे जिनका कांग्रेस से कोई संबंध नहीं था। यह दो मायने में गठबंधन की सरकार थी। पहली यह कि इसमें समुदायों और क्षेत्र के प्रतिनिधियों का चुनाव बेहद सावधानीपूर्वक किया गया था।
दूसरी बात यह कि यह नीतिगत गठबंधन भी था हालांकि इसमें विचारों का संतुलन नहीं था। इस सरकार में गैर कांग्रेसी विचारों वाले नेताओं का प्रतिनिधित्व भी था।
आजादी के बाद बनी पहली कैबिनेट को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। कैबिनेट मंत्री भाभा ने शरणार्थियों की समस्या और कंपनी लॉ बनाने के मुद्दे पर जोर दिया। जॉन मथाई जिनके हाथ से वित्त मंत्रालय को संभालने के दो मौके निकल चुके थे, उन्हें 1948 में मंत्रालय का प्रभार मिला और ऐसे कठिन वक्त में उन्होंने अपना काम किया।

तीन मंत्रियों ने दिया सरकार से इस्तीफा
गठबंधन की सरकार के दौरान कुछ मुश्किलें भी आई। पहले वित्त मंत्री बने आर के शनमुखम चेट्टी ने 1948 में इस्तीफा दे दिया। इसके बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी और भीमराव अंबेडकर ने भी नीतिगत मामलों में मतभेद की वजह से सरकार का साथ छोड़ दिया।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसलिए इस्तीफा दिया क्योंकि पाकिस्तान में विशेषकर पूर्वी बंगाल में रह रहे हिंदुओं को लेकर सरकार का जो रवैया था, वह उससे सहमत नहीं थे।
लेखक पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च में हैं।