बीसवीं सदी के मध्य में जब भारत आजादी के मुहाने पर खड़ा था। ठीक उसी वक्त एक पूर्वी एशियाई देश ने भारत के एक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। यह भारतीयों के साथ-साथ अंग्रेजों के लिए भी आश्चर्य की बात थी। देश के पूर्वी तट पर स्थित अंडमान और निकोबार द्वीप समूह भारत का एकमात्र ऐसा हिस्सा है जिस पर किसी गैर-यूरोपीय शक्ति यानी जापानियों का कब्जा रहा।
कुछ घंटों में पूरे अंडमान पर कर लिया था कब्जा
अंडमान पर जापानी कब्जा शायद द्वितीय विश्व युद्ध के सबसे कम चर्चित प्रकरणों में से एक है। 23 मार्च, 1942 को जापानी सेना दक्षिण अंडमान में उतरी और अगले तीन से चार घंटों में क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण हासिल कर लिया। अंडमान पर कब्जा करने की कोशिश करते समय जापानियों को लगभग किसी भी प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। सुभाष चंद्र बोस की Indian National Army (INA) ने भी इस काम में जापानियों की मदद की थी।
गांधी-बोस द्वंद्व
राष्ट्रवादी नेताओं के बीच आंतरिक विभाजन और असहमति दुनिया भर के उपनिवेशवाद विरोधी विद्रोह की एक सामान्य विशेषता थी। भारत में गांधी-बोस द्वंद्व इसका सटीक उदाहरण है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अपनाए जाने वाले सटीक मार्ग को लेकर दोनों नेताओं के बीच संघर्ष था।
महात्मा गांधी के लिए अहिंसा वह आवश्यक रणनीति थी जो देश को आजादी के दरवाजे तक ले जाएगी। वहीं सुभाष चंद्र बोस का यह मानना था कि क्रांतिकारी ताकतों का सहारा लिए बिना स्वतंत्रता कभी हासिल नहीं की जा सकती।
हिंसा-अहिंसा के अलावा जिस दूसरे मुद्दे पर दोनों स्वतंत्रता सेनानियों के मत भिन्न रहे, वह था अंग्रेजों को भारतीय धरती से बाहर निकालने के लिए अंतरराष्ट्रीय शक्तियों का सहायता लेने और न लेने में विश्वास।
द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत से ही बोस इस निष्कर्ष पर पहुंच गए थे कि ब्रिटेन के खिलाफ Axis powers (जर्मनी, इटली और जापान, ये दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के खिलाफ साथ मिलकर लड़ रहे थे) का समर्थन करने से भारत को अंग्रेजों से जल्द आजादी मिल जाएगी। इसके लिए वह अंग्रेजों के दुश्मन राष्ट्रों के पास सहायता मांगने पहुंचे। इतिहासकार टीआर सरीन का कहना है कि बोस को नाज़ीवाद या फासीवाद में कोई दिलचस्पी थी। लेकिन उनका मानना था कि फासीवादी शासन का समर्थन करने से अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने में आसानी होगी।
1940 के दशक की शुरुआत तक जापान ने दक्षिण पूर्व एशिया में महत्वपूर्ण जीत हासिल की थी और बोस को एहसास हुआ कि उनकी मदद लेना सबसे उपयुक्त होगा। दूसरी ओर जापानी इस वजह से INA का साथ देने को तैयार थे क्योंकि उन्हें बोस की सेना से भारतीय थाई-मलय सीमा पर तैनात ब्रिटिश इंडियन आर्मी के बारे में बहुमूल्य जानकारी मिल सकती थी।
INA और सेलुलर जेल के कैदी
सिंगापुर और बर्मा पर जापान की जीत के साथ, ब्रिटेन के खिलाफ बना गठबंधन भारतीय तटों के करीब आ पहुंचा था। जापान अब अंडमान की तरफ बढ़ रहा था। तब अंग्रेज अंडमान द्वीप समूह का इस्तेमाल विद्रोहियों को सजा देने के लिए किया करते थे। वहीं पर कुख्यात सेलुलर जेल भी था। जापानी बहुत आसानी से द्वीपों पर कब्ज़ा करने में सक्षम थे, फिर भी उन्होंने काला पानी की सजा काट रहे कैदियों को INA में शामिल होने के लिए कहा। ज्यादातर कैदी शामिल भी हो गए।
द्वीपों को अंग्रेजों से आजादी दिलाने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने जापानियों को इस बात के लिए मना लिया कि वह इसे भारत को सौंप दें। परिणामस्वरूप 30 दिसंबर, 1943 को वहां तिरंगा फहराया गया। उन्होंने द्वीपों का नाम शहीद और स्वराज रखा।
जापानियों ने की बर्बरता
आईएनए और जापानियों के बीच गठबंधन ने यह सुनिश्चित किया कि जापानी अंडमान पर बहुत कम या बिना किसी प्रतिरोध के कब्ज़ा कर सकें। हालांकि, स्थिति संभल नहीं सकी और जापानियों ने द्वीप के लोगों पर बर्बरता की। दरअसल, जब जापानियों ने द्वीपों पर कदम रखा तब से ही उत्पात मचाना शुरू कर दिया था।
जो भी उनके हाथ लगा, उन्हें मार डाला और लूट लिया। जापानी बर्बरता के पहले पीड़ितों में से एक जुल्फिकार अली थे जिन्होंने उन पर एयर गन से गोली चला दी थी। इसके जवाब में जापानी तब तक हत्या, बलात्कार, लूट और आगजनी करते रहे, जब तक अगली सुबह गांव वालों ने जुल्फिकार को उनके सामने पेश नहीं किया।
जापानियों ने ज़ुल्फ़िकार को बुरी तरह पीटा, लात मारी और तब तक प्रताड़ित किया गया जब तक वह मर नहीं गया। जुल्फिकार की बहादुरी और बलिदान का स्मारक आज भी पोर्ट ब्लेयर पर खड़ा है, जो दुनिया को भारत में जापानी अत्याचारों की याद दिलाता है।
पंजाबी कवि दीवान सिंह आईएनए के सदस्य के रूप में इस दौरान अंडमान में थे। जब उन्होंने स्थानीय आबादी को जापानियों के प्रकोप से बचाने की कोशिश की, तो उन्होंने उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया। जनवरी 1944 को उनकी मृत्यु से पहले उन्हें लगभग 82 दिनों तक पीटा गया और यातना दी गई। इसी अवधि में 44 अन्य लोगों को भी जापानियों ने गोली मार दी। जापानियों को उन सभी पर कथित तौर पर जासूस होने का संदेह था। यह घटना, जिसे होमफ़्रेगंज नरसंहार कहा जाता है, जापानियों द्वारा भारतीयों पर किया गया सबसे कठोर अत्याचार माना जाता है।
सुभाष चंद्र बोस ने नहीं की मदद!
जापानियों द्वारा किए गए अत्याचारों के बावजूद आईएनए नेता सुभाष चंद्र बोस की ओर से हस्तक्षेप का एक भी रिकॉर्ड मौजूद नहीं है। कुछ इतिहासकारों की राय है कि बोस ने स्थानीय आबादी के दुखों पर ध्यान नहीं दिया। वहीं कुछ अन्य लोगों का मानना है कि जापानियों ने शिकायतों को उनके कानों तक पहुंचने ही नहीं दिया। मामला जो भी हो, बोस की तरफ से अंडमान के निवासियों को मदद नहीं मिलने से वह उनके बीच बहुत बदनाम हो गए। ऐसा अनुमान है कि जापानियों की क्रूरता से अंडमान में लगभग 2000 भारतीयों की मौत हो गई। अंतत: अक्टूबर 1945 में इन द्वीपों पर अंग्रेज़ों ने फिर से कब्जा कर लिया।