भारत में साल 2025 में आर्थिक विरोधाभास की तस्वीर सामने आई है। एक ओर, लगातार सात प्रतिशत से अधिक की सकल घरेलु उत्पाद (GDP) की दर के साथ दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में भारत ने अपनी स्थित मजबूत की है। दूसरी ओर, दीर्घकालिक बेरोजगारी के संकट को लेकर बहस तीखी हुई है। लाखों शिक्षित और आकांक्षी युवाओं (जो या तो बेरोजगार हैं या जिन्हें अपने कौशल के मुताबिक रोजगार नहीं मिला है) के लिए अर्थव्यवस्था के आंकड़े खोखले साबित हो रहे हैं। साथ ही, जमीनी स्तर पर विकास और वास्तविक रोजगार के मौकों के बीच अंतर भारत के विकास, सामाजिक संतुलन और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए अहम चुनौतियों में से एक है।
कहां है समस्या?
समस्या बड़ी है। हर साल 1.2 करोड़ से ज्यादा युवा भारत के श्रम बल में शामिल होते हैं। ‘सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनामी’ (सीएमआइई) और सरकार के ‘पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे’ (पीएलएफएस) के ताजा आंकड़ों से लगातार बढ़ती बेरोजगारी दर की तस्वीर उजागर हुई है। ये न केवल रोजगार मुहैया कराने का मामला है बल्कि कामगारों की मांग और आपूर्ति के बीच घोर अंतर का मामला भी है। इसके पीछे कई संरचनात्मक कारक हैं।
तकनीक की दोधारी तलवार
तकनीक और खासकर AI से वे उद्योग बदल रहे हैं जो कभी बड़ी संख्या में रोजगार देने का काम करते थे। आइटी, बैक आफिस और निर्माण उद्योग को डेटा साइंस और मशीन लर्निंग के क्षेत्रों से चुनौती मिल रही है जहां अधिक कौशल वाले रोजगारों का सृजन हुआ है। इसके अलावा कम हुनर वाली नौकरियों में कटौती हो रही है।
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निर्माण उद्योग का हाल
श्रमिकों को खेती की जगह रोजगार प्रधान निर्माण उद्योग (मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर) की तरफ ले जाने के पारंपरिक विकास माडल को लागू करने में भारत को अरसा लगा है। अब इस क्षेत्र में जूझना पड़ रहा है जबकि पूर्वी एशिया के देश सफलतापूर्वक इस रास्ते पर चल रहे हैं। दक्षिण कोरिया ने 60 के दशक में निर्यात आधारित उद्योगीकरण को अपनाकर उद्योगों को बढ़ावा दिया। चीन ने टाउनशिप एंड विलेज एंटरप्राइज (टीवीई) के जरिए गांवों के अतिरिक्त श्रमिकों को इकट्ठा किया जिससे निर्माण क्षेत्र सीधे ग्रामीण इलाकों तक पहुंचा। भारत में ‘मेक इन इंडिया’ और ‘प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव’ (पीएलआइ) जैसी पहल के बावजूद जीडीपी और उससे भी बढ़कर रोजगार में निर्माण का हिस्सा कम रहा है। ज्यादा ध्यान पूंजी-प्रधान उद्योगों जैसे कि इलेक्ट्रानिक्स और असेंबलिंग इकाई पर रहा है।
कौशल की कमी
भारत की शिक्षा प्रणाली नौकरी के लिए युवाओं को तैयार करने में नाकाम है। नौसकाम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि उद्योगों के लिए आवश्यक कौशल- जैसे कि क्रिटिकल थिंकिंग, डेटा एनालिटिक्स और ग्रीन-टेक विशेषज्ञता और स्रातक करने वालों के कौशल में खासा अंतर है। ऐसे में, उद्योग शिकायत करते हैं कि प्रतिभाओं की कमी है जबकि लाखों पढ़े-लिखे छात्र बेरोजगार हैं।
संतुलन की जरूरत
भारत के लगभग 90 फीसदी कामगारों को नौकरी देने वाला अनौपचारिक सेक्टर झटकों को झेलने का काम करता है। लेकिन, यह अनिश्चितता प्रदान करता है। इस सेक्टर की नौकरियों में कम वेतन, सामाजिक सुरक्षा की कमी की स्थिति होती है। जानकारों के मुताबिक, अप्रेंटिसशिप के जरिए शिक्षा से रोजगार तक सीधा रास्ता तैयार करना होगा। साथ ही, भारत को 21वीं शताब्दी के लायक श्रम कानून की रूप-रेखा की आवश्यकता है। ऐसा कानून, जो लचीलेपन की आवश्यकता और कामगारों के सुरक्षा अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करे।
भारत को 21वीं शताब्दी के लायक श्रम कानून की रूप-रेखा की आवश्यकता है। ऐसा कानून जो लचीलेपन की आवश्यकता और कामगारों के सुरक्षा अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करे। इसके लिए सामाजिक सुरक्षा मजबूत करनी होगी और कामगारों को स्वास्थ्य, बीमा और पेंशन से जुड़े लाभ मुहैया कराने होंगे। इसके दायरे में गिग और अनौपचारिक कामगार भी शामिल होने चाहिए। – राधिका कपूर, वरिष्ठ रोजगार विशेषज्ञ, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन
चुनौती विशाल लेकिन अवसर भी बड़ा
चुनौती विशाल है लेकिन अवसर भी उतना ही बड़ा है। अस्थिरता का खतरा उत्पन्न करने वाली जनसंख्या आने वाले दशकों में भारत को आर्थिक मामलों में दिग्गज देश बना सकती है। श्रम प्रधान विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों को मजबूत करने से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर को लगभग आठ फीसदी पर बनाए रखने में मदद मिल सकती है। – मनीष सभरवाल, उपाध्यक्ष, ‘नेशनल काउंसिल आफ अप्लायड इकोनामिक रिसर्च’
संकट का समाधान करने के लिए भारत की आर्थिक नीति में मौलिक बदलाव की आवश्यकता है। लक्ष्य समावेशी ढंग से अर्थव्यवस्था को विकसित करने की तरफ होना चाहिए। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ और सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले हैं। इस क्षेत्र को आसानी से कर्ज, तकनीक और औपचारिक बाजार मिलना चाहिए। कौशल से जुड़ी पहल को आपूर्ति केंद्रित होने के बदले मांग आधारित बनाना चाहिए। अप्रेंटिसशिप के जरिए शिक्षा से रोजगार तक सीधा रास्ता तैयार करना होगा। साथ ही, जिन क्षेत्रों में ज्यादा रोजगार हैं, वहां रणनीतिक नीतिगत समर्थन देना चाहिए। इसमें न केवल कपड़ा और पर्यटन जैसे पारंपरिक क्षेत्र शामिल हैं बल्कि उभरता हरित क्षेत्र भी है। नवीकरणीय ऊर्जा से लेकर कूड़ा प्रबंधन और इलेक्ट्रिक गाड़ियों निर्माण तक हरित अर्थव्यवस्था की तरफ बदलाव से नौकरियों के लिए बड़े अवसर हैं।
