इस बार रमजान का महीना लगभग बीत गया, पर इफ्तार पार्टियों की वैसी चर्चा नहीं रही जैसा हुआ करती थी। खास कर राजनीतिक इफ्तार की। वैसे तो राजनीतिक इफ्तार का चलन पिछले कुछ सालों में कमजोर हुआ है, लेकिन इस चुनावी साल में भी मामला ठंडा ही दिख रहा है। हालांकि, शाहनवाज हुसैन जरूर 11 अप्रैल को दावत दे रहे हैं। हुसैन की यह सालाना दावत राजनीतिक हलकों में काफी चर्चा का विषय रहती है। इसकी वजह भी है।
सबा नकवी ने अपनी किताब The Saffron Storm: From Vajpayee to Modi में लिखा है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने शाहनवाज हुसैन की इफ्तार पार्टी में ही कहा था कि अयोध्या में विवादित स्थल पर भव्य राम मंदिर बनना चाहिए और मस्जिद किसी और जगह पर बने। बकौल नकवी, इस पर संजय निरुपम (जो तब शिवसेना में थे) ने कटाक्ष किया था कि यह भारतीय धर्मनिरपेक्षता का नायाब नमूना है कि इफ्तार पार्टी में राम मंदिर बनाने की बात हो रही है।

शाहनवाज हुसैन बताते हैं कि बीजेपी की ओर से पहली बार आधिकारिक तौर पर इफ्तार पार्टी का आयोजन तब हुआ था जब मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष हुआ करते थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री रहते दो बार इफ्तार का आयोजन किया। इसके बाद उन्होंने हुसैन को यह जिम्मेदारी सौंप दी।
नेताओं की इफ्तार पार्टी का इतिहास पुराना है। नेहरू के जमाने से यह चला आ रहा है। यह बात अलग है कि तब इसका मकसद राजनीतिक नहीं हुआ करता था।

पंडित जवाहरलाल नेहरू जब प्रधानमंत्री थे तो वह अपने दोस्तों और परिचितों के लिए इफ्तार का आयोजन किया करते थे। यह उनका निजी कार्यक्रम होता था। नई दिल्ली के 7, जंतर मंतर रोड पर स्थित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी मुख्यालय में वह अपने दोस्तों व परिचितों को रोजा खोलने के लिए बुला लिया करते थे। उनके निधन के बाद इस परंपरा को जारी नहीं रखा गया।
लाल बहादुर शास्त्री के समय इफ्तार का चलन बंद हो गया था। लेकिन, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो उन्हें इफ्तार की प्रथा शुरू करने की सलाह दी गई। कहा जाता है कि उन्हें मुस्लिम वोट बैंक का ध्यान रखते हुए दावत-ए-इफ्तार के आयोजन की सलाह दी गई थी।
बहुगुणा करते थे इफ्तार की मेजबानी
1970 के दशक के अंत में राजनीतिक इफ्तार अपने आप में एक राजनीतिक कार्यक्रम बन गया था। तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, हेमवती नंदन बहुगुणा ने इसे और मजबूती दी। वह लखनऊ में मेजबानी करते थे और राजनीतिक रसूख रखने वाले मुस्लिम समुदाय के प्रमुख सदस्यों को भी आमंत्रित करते थे। हालांकि, बाद में यूपी में भी यह प्रथा कमजोर पड़ती गई और अब तो बंद ही हो गई है। यूपी में बीजेपी के राजनाथ सिंह जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने एक बार दावत-ए-इफ्तार की मेजबानी की थी।

इंदिरा के बाद राजीव गांधी ने भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं जैसे मोहसिना किदवई के घरों पर इफ्तार में शामिल होने की परंपरा को जारी रखा।
धीरे-धीरे, अन्य छोटे दलों ने भी दावत-ए-इफ्तार देने का चलन शुरू किया। मुस्लिम समुदाय से नाता जोड़ने और उनके वोट पाने की हसरतें रखने वाले दलों के अलावा कुछ नेताओं ने निजी स्तर पर भी ऐसी पार्टी देनी शुरू की।
वाजपेयी सरकार में जारी रही इफ्तार की परंपरा
अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी इफ्तार की परंपरा जारी रखी। 2005 में जब उन्होंने आखिरी बार इसकी मेजबानी की थी तब उनकी तबीयत भी नासाज थी।
बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी अपने आधिकारिक निवास, 7 रेस कोर्स रोड पर नियमित रूप से इफ्तार का आयोजन करते रहे थे और कांग्रेस पार्टी की ओर से भी विभिन्न राज्यों में इफ्तार पार्टी आयोजित की जाती रही थी। नरेंद्र मोदी के आने के बाद प्रधानमंत्री निवास में इफ्तार पार्टी के आयोजन की परंपरा खत्म कर दी गई। हालांकि, आरएसएस से जुड़े मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने दावत-ए-इफ्तार देने का चलन शुरू किया।
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