मोदी सरकार के मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता माधवराव सिंधिया और दादी राजमाता विजयाराजे सिंधिया के बीच संबंध मधुर नहीं थे। कहा जाता है कि पहले जनसंघ और फिर बीजेपी की दिग्गज नेता रहीं राजमाता, अपने बेटे को भी अपनी ही पार्टी लाइन पर आगे बढ़ाना चाहती थीं, मगर श्रीमंत के नाम से मशहूर माधवराव को ये मंजूर नहीं था। मगर कुछ किताबों और लेखों में मां-बेटे के बीच की दूरी की वजह सरदार आंग्रे को भी माना जाता है।
सिंधिया राजघराने का त्रिकोण: ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी और अपने दौर की नामचीन बीजेपी नेता राजमाता विजयाराजे सिंधिया की वसीयत ने एक वक्त पर सबको चौंका दिया था। एक तरफ तो उस वसीयत में राजमाता ने अपनी जायदाद का बंटवारा ना करके उसे अपनी बेटियों को दे दिया था, दूसरी तरफ बेटे माधवराज सिंधिया से अपने अंतिम संस्कार का हक भी छीन लिया था। आखिर मां-बेटे के बीच ऐसा भी क्या हुआ जो दोनों में इतनी दूरियां आ गईं।
मां, बेटा और सरदार आंग्रे: सरदार आंग्रे, ये वो नाम है, जिसे सिंधिया परिवार को नजदीक से जानने वाले राजमाता और माधवराव सिंधिया के बीच दूरियों की असली वजह मानते हैं। राशिद किदवई की किताब ‘द हाउस ऑफ़ सिंधियाज- ए सागा ऑफ़ पावर, पॉलिटिक्स एंड इन्ट्रीग’ के मुताबिक “एक दौर था जब राजमाता विजयाराजे सिंधिया के संबंध बेटे माधवराव के साथ बेहद करीबी थे। माधवराव अपनी मां से उतने खुले हुए थे कि उनसे अपनी गर्लफ्रेंड्स तक की चर्चा करने से नहीं हिचकते थे।” सिंधिया परिवार को करीब से जानने वाले कहते हैं कि इस नजदीकी को दूरियों में बदलने की वजह काफी हद तक सरदार आंग्रे थे, जो उन दिनों राजमाता के बेहद करीबी हुआ करते थे।
कैसे आईं मां-बेटे में दूरियां?: जाने माने पत्रकार एनके सिंह 30 सिंतबर 1991 को लिखे गए अपने आर्टिकल ‘डॉमेस्टिक बैटल बिटवीन विजयराजे एंड माधवराव सिंधिया’ में लिखते हैं। “माधवराव सिंधिया ने मुझे बताया था कि उनके और राजमाता के संबंध 1972 से ख़राब होना शुरू हुए थे, जब वो अपनी मां की पार्टी जनसंघ छोड़ कर कांग्रेस की सदस्यता लेना चाह रहे थे। माधवराव ने स्वीकार किया था कि ऑक्सफ़र्ड से लौटने के बाद जनसंघ की सदस्यता लेना उनकी बहुत बड़ी भूल थी।” लेकिन उसी लेख में एनके सिंह ने आगे लिखा था कि “सरदार आंग्रे का मत इससे अलग था। उन्हें राजमाता ‘बाल’ और दूसरे लोग ‘बाल्डी’ कहते थे। उनका मानना था कि माधवराव ने इसलिए डर कर अपनी मां का साथ छोड़ दिया क्योंकि जनसंघ मध्य प्रदेश में 1972 का विधानसभा चुनाव हार गई थी।”
मां ने कहा अंतिम संस्कार मत करना: बहरहाल वजह चाहे जो रही है, मगर आगे चलकर राजमाता विजयाराजे सिंधिया अपने इकलौते बेटे माधवराव सिंधिया से इस कदर खफा हो गईं थीं कि उन्होंने 1985 में अपने हाथ से लिखी वसीयत में कह दिया था कि “मेरा बेटा माधवराव सिंधिया ना तो मेरा अंतिम संस्कार करेगा और ना ही मेरे अंतिम संस्कार में भी शामिल होगा।” ये बात और है कि जब 2001 में राजमाता का निधन हुआ तो मुखाग्नि बेटे माधवराव सिंधिया ने ही दी थी।