गोवा में चाहे सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष के विधायक, सभी यह चाहते हैं कि राज्य में होने वाली सांडों की लड़ाई को कानूनी दर्जा दे दिया जाए। यानी इसे कानूनी रूप से वैध बना दिया जाए ताकि सांडों की लड़ाई का आयोजन करने वालों के खिलाफ खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई न हो।
कहा जाता है कि यह प्रथा हड़प्पा सभ्यता के वक्त से चली आ रही है और ऐसे कुछ प्रमाण हैं कि तब इस तरह की लड़ाइयों का आयोजन खेल और मनोरंजन के लिए किया जाता था।
स्थानीय भाषा में सांडों की लड़ाई को धीरियो या धीरी कहा जाता है। गोवा के लोग इसे वहां की संस्कृति का अहम हिस्सा मानते हैं। पिछले कुछ सालों में सांड़ों की लड़ाई पर रोक लगाने की मांग जोर-शोर से उठी है और यह मामला अदालत तक पहुंच गया है। अदालत के द्वारा इस पर रोक लगाने के आदेश के बाद भी गोवा में सांडों की लड़ाई का आयोजन होता है।
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गोवा में सांडों की लड़ाई स्पेन से अलग
Goa, Cradle of My Dreams (1988) किताब में नोरा सेको डिसूजा लिखती हैं, “गोवा में सांडों की लड़ाई स्पेनिश सांडों की लड़ाई की तुलना में कम जटिल होती है। यह लड़ाई गोवा में धान के खेतों और फुटबॉल के मैदान में होती है और यहां चरवाहे अपने जानवरों को लेकर आते हैं।”
नोरा लिखती हैं, “लड़ाई में शामिल बैलों को सावधानी से चुना जाता है उन्हें ट्रेनिंग भी दी जाती है। यह बैल एक-दूसरे पर हमला करते हैं और जब उनके सिर आपस में टकराते हैं तो ऐसा लगता है कि बिजली गिरने से कोई बड़ा पेड़ गिर गया हो।”
गोवा में यह खेल कई पीढ़ियों से खेला जा रहा है और ग्रामीणों के मनोरंजन का एक अच्छा साधन है।
सांडों की लड़ाई के दौरान क्या होता है?
लड़ाई के दौरान सांड एक-दूसरे से भिड़ते हैं तब आपस में सिर टकराते हैं और पीछे खड़े ट्रेनर लड़ने के लिए उनमें जोश भरते हैं। जो भी सांड लड़ाई के दौरान अखाड़े से बाहर निकल जाता है या भाग जाता है, माना जाता है कि वह लड़ाई हार गया है जबकि स्पेन में यह लड़ाई तब खत्म होती है जब किसी जानवर की मौत हो जाती है। यह लड़ाई कुछ मिनट से लेकर 1 घंटे से ज्यादा वक्त तक चल सकती है।
गोवा में नुवेम के पूर्व विधायक राधाराव ग्रेसियस द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहते हैं कि गोवा में सांडों की लड़ाई का यह खेल कई पीढ़ियों से चला आ रहा है। यह तब से है जब गोवा में पुर्तगालियों का शासन था। वह बताते हैं कि उस समय कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था थी और तब यह लड़ाई मनोरंजन के तौर पर आयोजित की जाती थी।
ग्रेसियस बताते हैं कि सांडों के नाम (माइक) टायसन और रैम्बो (सिल्वेस्टर स्टेलोन का प्रचलित किरदार) जैसे होते थे।
मामला हाई कोर्ट तक पहुंचा
सितंबर 1996 में सांडों की लड़ाई के दौरान एक हिंसक सांड ने जेवियर फर्नांडीस नाम के शख्स को मार डाला था। इस घटना के बाद सांडों की लड़ाई का विरोध शुरू होने लगा और एनजीओ पीपल फॉर एनिमल्स ने मुंबई हाई कोर्ट में याचिका दायर की।
याचिका में कहा गया कि सांडों की लड़ाई पूरी तरह अवैध है और जानवरों के साथ क्रूरता है। हाई कोर्ट ने माना कि यह लड़ाई अवैध है और इसका आयोजन नहीं किया जा सकता। अदालत ने राज्य सरकार को इसे रोकने के लिए कदम उठाने का निर्देश दिया लेकिन इसके बाद भी गोवा के तटीय इलाकों में यह लड़ाई जारी है।
बताया जाता है कि पुलिस की कार्रवाई से बचने के लिए जिन जगहों पर लड़ाई का आयोजन होता है उसकी सूचना व्हाट्सएप या फेसबुक ग्रुप में लड़ाई शुरू होने से कुछ घंटे पहले दे दी जाती है।
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सांडों की लड़ाई में सट्टेबाजी
पूर्व विधायक ग्रेसियस कहते हैं कि अब इसमें सट्टेबाजी भी होने लगी है और बैन लगने की बात सिर्फ कागजों में है। यहां तक कि यूरोप में रहने वाले गोवा के लोग भी इस तरह की लड़ाईयों में पैसे लगाते हैं।
इस साल जनवरी में सांडों की लड़ाई के दौरान एक शख्स की मौत हो गई थी और अप्रैल में लड़ाई के दौरान एक सांड मर गया था। इस संबंध में पुलिस कई मामले दर्ज कर चुकी है।
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सांडों की लड़ाई के समर्थक क्या कहते हैं?
सांडों की लड़ाई का समर्थन करने वाले लोगों का तर्क है कि यह गोवा का पारंपरिक खेल है। गोवा में रहने वाले फ्रांसिस कहते हैं, “इसमें कोई क्रूरता नहीं है। यह एक ऐसा खेल है जहां बैलों की ताकत का इम्तिहान लिया जाता है। यह बॉक्सिंग की तरह है।”
फ्रांसिस कहते हैं कि इस पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए। गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर ने 2015 में कहा था कि अगर इस खेल को कानून के दायरे में लाया जाए तो यह पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री फ्रांसिस्को सरदिन्हा द इंडियन एक्सप्रेस से कहते हैं कि सांडों की लड़ाई को वैध कर दिया जाना चाहिए।
कुछ लोगों का तर्क है कि तमिलनाडु में जिस तरह जल्लीकट्टू को कानूनी मान्यता दी गई है, वैसा ही गोवा में किया जाए। लेकिन जानवरों के अधिकार के लिए आवाज उठाने वाले कार्यकर्ता साड़ों की लड़ाई को वैध बनाए जाने की मांग का विरोध करते हैं।
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PETA का क्या कहना है?
PETA (People for the Ethical Treatment of Animals) India के लीगल एडवाइजर मीत अशर द इंडियन एक्सप्रेस से कहते हैं, इससे जानवरों को गंभीर शारीरिक और मानसिक नुकसान होता है। उन्होंने कहा कि हिंसा को मनोरंजक नहीं माना जाना चाहिए।
हाल ही में 31 जुलाई को महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के विधायक जीत अरोलकर ने सांडों की लड़ाई को वैध करने के लिए कानून बनाने की मांग की। मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत का कहना है कि राज्य सरकार देख रही है कि वह इस मामले में क्या कर सकती है।