अशोक लवासा

हाल ही में संपन्न संसद के विशेष सत्र से पहले ‘एक देश, एक चुनाव’ (One nation, One Election) की चर्चा थी। हालांकि विशेष सत्र में ‘महिला आरक्षण बिल’ पर ही फोकस रहा। वन नेशन वन इलेक्शन पर कोई चर्चा नहीं हुई। जबकि इस विषय पर 2 सितंबर को एक अधिसूचना जारी कर कहा गया था कि “राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए देश में एक साथ चुनाव कराना चाहिए।”

पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक समिति को न केवल ‘एक देश, एक चुनाव’ की संभावना तलाशने का काम सौंपा गया है बल्कि “देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए सिफारिशें करने को भी कहा गया है।”

देश में केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ क्यों होने चाहिए, इसे लेकर अधिसूचना में तीन कारणों का हवाला दिया गया है।

पहला कारण चुनावों पर होने वाले भारी खर्च को बताया गया है। चुनाव जितनी बार होता है, उतनी बार इसमें सरकार का भी घन लगता है और चुनाव लड़ने वाली पार्टियों व उम्मीदवारों का भी।

दूसरा कारण सुरक्षा बलों और अन्य चुनाव अधिकारियों की कर्तव्य विमुखता को रेखांकित करता है। तर्क है कि बार-बार चुनाव होने से सुरक्षा बल और अन्य चुनाव अधिकारी अपना प्राथमिक काम छोड़कर (उदाहरण के लिए शिक्षक को पढ़ाना छोड़कर चुनाव का काम करना पड़ता है), चुनाव में उलझे रहते हैं।

तीसरा कारण आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) के बार-बार लागू होने से विकास कार्यों में आने वाली बाधा को बताया गया है।

पहली नजर में तीनों कारण मजबूत मालूम पड़ते हैं। अब एक-एक कर इनकी पड़ताल करते हैं।

एक साथ चुनाव कराने से कितना पैसा बचेगा?

2014 का लोकसभा चुनाव कराने में कुल 4000 करोड़ रुपये से थोड़ा कम खर्च आया था। 2019 के आम चुनावों के आयोजन पर लगभग 9000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। 2019 में मतदाताओं की संख्या लगभग 91 करोड़ थी, इसका मतलब यह हुआ कि चुनाव कराने में प्रति मतदाता औसतन लगभग 100 रुपये खर्च हुआ।

अब अगर अलग-अलग चुनाव कराने की लागत लोकसभा चुनावों में खर्च की गई राशि से दोगुनी मानी जाए, फिर भी पांच साल में प्रति मतदाता 200 रुपये खर्च होगा। इसका मतलब है कि राज्य और केंद्र के चुनाव कराने में प्रति मतदाता प्रतिदिन लगभग 10 पैसे खर्च होते हैं। मुझे यकीन है कि औसत व्यक्ति प्रतिदिन मोबाइल कॉल पर इससे अधिक खर्च करता है।

यदि कोई लोकसभा 2019 चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा किए गए कुल 2,994.16 करोड़ रुपये के खर्च को ध्यान में रखे तो इसमें प्रति मतदाता लगभग 2 या 3 पैसे जुड़ेंगे। यह भी अनुमान है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों/उम्मीदवारों द्वारा अनौपचारिक रूप से लगभग 50,000 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं। लेकिन इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि वोट ‘खरीदने’ के लिए अनौपचारिक रूप से जो पैसे खर्च किए जाते हैं, उस पर तथाकथित सुधार से कोई अंकुश लग जाएगा।

अब तक लोकसभा और विधानसभा चुनावों को अलग-अलग या एक साथ कराने पर होने वाले कुल सरकारी खर्च और एक साथ चुनाव होने की स्थिति में होने वाली बचत पर कोई विश्लेषण नहीं किया गया है। यह मान लेना ठीक लग सकता है कि कुछ प्रशासनिक लागत बचाई जा सकती है। लेकिन किसी भी तरह का डेटा नहीं है। बिना डेटा इस तरह का महत्वपूर्ण निर्णय किस आधार पर लिया जा सकता है।

तंत्र का अपना मुख्‍य काम छोड़, दूसरे (चुनावी) कामों में लगने का तर्क

चुनावों के संचालन में केंद्रीय और राज्य सुरक्षा बलों के साथ-साथ अन्य सरकारी कर्मचारी भी शामिल होते हैं जिन्हें उनके सामान्य कर्तव्यों के अलावा चुनाव ड्यूटी करने के लिए बुलाया जाता है।

यहां भी यह साबित करने के लिए कोई सांख्यिकीय अध्ययन (डेटा) नहीं है कि राज्य विधानसभा और संसद के चुनाव एक साथ या अलग-अलग आयोजित करने पर चुनाव के काम में कितने दिन लगते हैं।

यह माना जा सकता है कि एक चुनाव चक्र के दौरान कर्मचारी लगभग 60 दिनों तक शामिल होते हैं और प्रत्येक राज्य के लिए यह पांच साल में दो बार किया जाता है क्योंकि चुनाव अलग-अलग होते हैं। जहां तक सिविलियन स्टाफ (टीचर, बैंक कर्मचारी, आदि) का सवाल है, तो वह चुनाव का काम अपनी मूल ड्यूटी को रोक कर करते हैं। इसमें कोई विवाद नहीं है। लेकिन यह किस हद तक बुरा है, यह बहस का विषय है।

अब बचे सुरक्षा बल के लोग। चुनाव निस्संदेह सुरक्षा बलों के लिए “आवश्यक कर्तव्य” हैं। यह भी सच है कि कई सिविलियन स्टाफ चुनाव ड्यूटी करना अपना विशेषाधिकार मानते हैं। अब तक जो सिस्टम चला आ रहा है, उसमें जनगणना और चुनावों जैसी सामयिक गतिविधियों के लिए पहले सरकार की नौकरी कर रहे कर्मचारियों की सेवा ली जाती है। सरकार कर्मचारी इसे अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर करते हैं।

जनगणना और चुनाव जैसी सामयिक कामों के लिए फुल टाइम स्टाफ नियुक्त करने का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जनगणना या चुनाव खत्म होने के बाद उनका कोई काम नहीं रह जाएगा। संविधान तो केवल चुनाव की अवधि के लिए क्षेत्रीय चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का भी प्रावधान करता है।

आदर्श आचार संह‍िता (MCC) से विकास कार्यों को कितना नुकसान?

विकास कार्यों में व्यवधान के तीसरे तर्क को साबित करने के लिए भी कोई डेटा उपलब्ध नहीं है। एमसीसी को ध्यान से पढ़ने पर पता चलता है कि जब एमसीसी लागू होता है तो केवल एक निश्चित श्रेणी के सरकारी खर्च को प्रतिबंधित किया जाता है। यह इसलिए होता है ताकि सार्वजनिक संसाधनों को खर्च करके सत्तारूढ़ दल अनुचित चुनावी लाभ न ले सके। एमसीसी पहले से चल रही योजनाओं, नियमित सरकारी खर्च या किसी भी प्रकार के आपातकालीन खर्च में कोई कटौती नहीं करता है।

चुनाव से कौन परेशान है?

भारत जैसी संघीय राजनीति में किसी भी राज्य में चुनाव का संबंध उस राज्य के मतदाताओं और राजनीतिक नेताओं से होता है, न कि अन्य राज्यों के मतदाताओं से। नागालैंड में चुनाव तमिलनाडु में प्रशासनिक कामकाज को कैसे प्रभावित करते हैं या हरियाणा में चुनाव केरल में मतदाताओं को कैसे चिंतित करते हैं? न ही उस मामले में, किसी राज्य में चुनाव का असर केंद्र सरकार के कामकाज पर पड़ना चाहिए। हालांकि, अगर पार्टी नेतृत्व हर राज्य में चुनाव प्रचार के प्रति जुनूनी है और नहीं चाहेगा कि स्थानीय नेतृत्व राज्य-स्तरीय अभियानों का प्रबंधन करे, तो वह हर चुनाव को अपने कामकाज पर असर डालने वाला देखेगा। यह भारत में राजनीति का केंद्रीकरण है जिसने स्थानीय लोकतांत्रिक संस्थाओं को पनपने नहीं दिया है।

सरकार को कहां ध्यान देना चाहिए?

ऐसे देश में जहां भारी बारिश होने पर या हवा में प्रदुषण की मात्र बढ़ने के कारण सामान्य कामकाज बाधित हो जाता है, जहां हीट वेव या जी20 बैठक के कारण शैक्षणिक संस्थान बंद हो जाते हैं, जहां महीनों तक आंदोलन चलता रहता है जिससे सामान्य जीवन पूरी तरह से ठप हो जाता है, वहां एक साथ चुनाव जैसे मुद्दों पर ऊर्जा खर्च करने की की जगह सरकार को अधिक तात्कालिक और जरूरी मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए। चुनाव शेड्यूल पर ध्यान देने के बजाए सरकार को चुनाव-संबंधी व्यय में अधिक पारदर्शिता लाने के लिए अधिक प्रभावी तरीके अपनाना चाहिए।

एक राष्ट्र जो अनावश्यक आईपीएल मैचों की अधिकता से नहीं ऊबता, उसे अपने लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग करने में थकावट हो जा रही है, यह दिखाना ठीक नहीं हैं।