भारत में कोरोना महामारी की दस्तक से पहले फेस मास्क का इस्तेमाल अस्पताल, लैब, फैक्ट्रियों आदि तक सीमित था। दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में वायु प्रदूषण से बचने के लिए इक्का-दुक्का लोग इसे लगाए दिख जाते थे। लेकिन कोरोना महामारी की भयावहता ने फेस मास्क को लोगों के जीवन का हिस्सा बना दिया। अब तो दफ्तर, दुकान, मॉल, सिनेमा हॉल के बाहर ही पोस्टर लगा होता है – नो मास्क, नो एंट्री। इंसान भी अब मास्क के साथ अधिक सुरक्षित महसूस करने लगे हैं। लेकिन यहीं से एक नई असुरक्षा और एक नए खतरे का जन्म भी हो रहा है।
जी हाँ, आज देश ही नहीं दुनिया भर में फेस मास्क एक नई चुनौती बनकर उभरा है। मास्क ने भले ही दुनिया भर में लाखों लोगों का जीवन बचाया हो। लेकिन इससे पैदा होने वाले कचरे से निपटना मुश्किल होता जा रहा है। सिर्फ फेस मास्क की वजह से भारत में हर साल 15.4 लाख टन माइक्रोप्लास्टिक पैदा हो रहा है। यह पर्यावरण और इंसान दोनों के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।
उत्तर प्रदेश के श्री रामस्वरूप मेमोरियल विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग का इस विषय पर एक अध्ययन सामने आया है। यह अध्ययन अंतरराष्ट्रीय जर्नल कीमोस्फीयर में प्रकाशित हुआ है। कोविड -19 महामारी के दौरान संक्रमण दर को कम करने के लिए प्लास्टिक उत्पादों का जमकर उपयोग किया गया। परिणामस्वरू अब प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन का सिस्टम चरमरा गया है। भारत में हर साल करीब 23,888.1 करोड़ मास्क का इस्तेमाल किया जा रहा है। इतने मास्क का कुल वजन हुआ करीब 24.4 लाख टन। अध्ययन बताता है कि इससे करीब 15.4 लाख टन माइक्रोप्लास्टिक और पॉलीप्रोपोलीन उत्पन्न हो रहा है।
आबादी के लिहाज से भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है, इसलिए यह मास्क के उपयोग के मामले में भी दुनिया में दूसरे नंबर पर है। और मास्क से माइक्रोप्लास्टिक उत्पन्न करने के मामले में भी दूसरे स्थान पर है। फेस मास्क से माइक्रोप्लास्टिक उत्पन्न करने के मामले में अमेरिका तीसरे नंबर पर है। जबकि अमेरिका की जनसंख्या भारत से बहुत कम है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2020 में भारत की कुल आबादी 138 करोड़ थी। वहीं अमेरिका की आबादी 39.95 करोड़ थी। बावजूद इसके अमेरिका हर साल करीब 12.5 लाख टन फेस मास्क इस्तेमाल कर रहा है, जिससे करीब 7.9 लाख टन माइक्रोप्लास्टिक पैदा हो रहा है। सवाल उठता है कि यह माइक्रोप्लास्टिक क्या बला है, जिसे लेकर अध्ययन करने वाले इतने चिंतित है?
माइक्रोप्लास्टिक क्या है? : प्लास्टिक समुद्र में जाकर टूटता है और माइक्रोप्लास्टिक बन जाता है। माइक्रोप्लास्टिक का व्यास 5 मिमी से कम होता है। आसान भाषा में कहें तो यह इतना छोटा होता है कि इंसान अपनी नग्न आंखों से नहीं देख सकता। इसे देखने के लिए स्पेक्ट्रोफोटोमीटर जैसे उपकरणों की आवश्यकता होती है। यह छोटी सी चीज जिसे हम देख भी नहीं सकते वो दुनिया भर के लिए मुसीबत बना हुआ है। जी-7 से लेकर लंदन कन्वेंशन तक में इसे कंट्रोल करने की कसमें खायी जाती हैं।
प्रकृति के संरक्षण हेतु बनाया गया अंतरराष्ट्रीय संघ IUCN की मानें तो समुद्री मलबे का लगभग 80% माइक्रोप्लास्टिक है। ये माइक्रोप्लास्टिक जलीय जीवों के लिए तो खतरा बने ही हैं। लेकिन जब वही जलीय जीव भोजन के रूप में इंसानों के शरीर में जाते हैं तो इंसानी जीवन भी संकट में पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में इस्तेमाल के बाद फेंक दिए गए फेस मास्क से जो कचरा उत्पन्न हो रहा है, वो माइक्रोप्लास्टिक की बड़ी खेप तैयार कर रहा है।