कर्नाटक के शिवमोग्गा जिला के इसुरु गांव ने 15 अगस्त 1947 से पांच साल पहले ही खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। इसके लिए ग्रामीणों ने खूनी संघर्ष किया और शहादत दी। शिकारीपुर तालुका के इस गांव का हर निवासी स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार से ताल्लुक रखता है। हालांकि इसुरु निवासियों का मानना है कि उनके गांव को वह सम्मान और श्रेय हासिल नहीं हुआ जिसका वह हकदार है।
डेक्कन हेराल्ड की एक रिपोर्ट में स्थानीय युवा सतीश कुमार ने बताया है कि जब देश अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। हम अपनी आजादी के 80वें वर्ष में हैं। इस अवसर पर ग्रामीणों ने 80 फुट लंबा तिरंगा जुलूस निकाला है।
कैसे मिली आजादी?
साल 1942 में इसुरु निवासियों ने अपनी सरकार चलाने के लिए अंग्रेजों को लैंड टैक्स देने से इनकार कर दिया। गांव के ही स्कूल के पास एक बोर्ड लगाया गया, जिस पर लिखा था- ”इसुरु की अपनी स्वतंत्र सरकार है। कोई भी अधिकारी स्वतंत्र सरकार की अनुमति बिना गांव में कदम नहीं रख सकता।” ग्रामीणों की इस चेतावनी के बाद भी तहसीलदार और सब-इंस्पेक्टर टैक्स वसूलने के लिए गांव में घुस गए थे, जिसका परिणाम खूनी संघर्ष के रूप में सामने आया।
बच्चों को बनाया गया सरकार प्रमुख
ग्रामीणों ने जानबूझकर जयन्ना और मल्लप्पाय्या नाम के दो बच्चों को स्वतंत्र सरकार का प्रशासनिक अधिकारी और एसआई बनाया। उनका मानना था कि बच्चों के सरकार प्रमुख होने पर अंग्रेज अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं करेंगे।
28 सितंबर, 1942 को ग्रामीणों की चेतावनी को नजरअंदाज कर तहसीलदार और एसआई के नेतृत्व में अधिकारियों की एक टीम गांव में पहुंची। टैक्स को लेकर अधिकारियों और ग्रामीणों के बीच कहासुनी हुई और अंतत: अंग्रेजी हुकूमत से त्रस्त ग्रामीणों ने गुस्से में आकर तहसीलदार व एसआई की हत्या कर दी।
इसके बाद सरकारी अधिकारियों ने 500 पुलिसकर्मियों के साथ पूरे गांव में तोड़फोड़ की। स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाले लोगों के घरों में आग लगा दी गई। कानूनी कार्यवाही के बाद पांच ग्रामीणों – के गुरप्पा, गिनाहल्ली मल्लप्पा, बडकल्ली हलप्पा, सूर्यनारायणचार और गौडरू शंकरप्पा को फांसी की सजा दी गई, 17 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और शेष ग्रामीणों को कारावास की छोटी अवधि की सजा सुनाई गई।