भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले धुंडिराज गोविंद फाल्के यानी दादासाहेब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल, 1870 को महाराष्ट्र के नासिक के त्र्यंबक शहर में हुआ था। भारतीय सिनेमा के इस ‘पितामह’ की जिंदगी असफलताओं, संघर्षों और अभूतपूर्व उपलब्धियों से भरी है।

प्लेग से हो गई थी पत्नी और बच्चे की मौत

दादासाहब फाल्के के पिता संस्कृत के एक प्रसिद्ध विद्वान और पेशेवर पुजारी थे। उनकी मां गृहिणी थीं। दादासाहब फाल्के सात भाई-बहन थे। फाल्के का परिवार पर्याप्त समृद्ध था। दादासाहेब ने मैट्रिक की पढ़ाई के बाद सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट जैसे प्रतिष्ठित स्कूलों में दाखिला लिया था। मुंबई के इस सबसे पुराने कला संस्थान में दाखिले के वक्त फाल्के की उम्र केवल 15 वर्ष थी।

उन्होंने एक साल का ड्राइंग कोर्स करने के बाद 16 साल की उम्र में अपने समुदाय की एक लड़की से शादी कर ली। हालांकि दोनों का साथ ज्यादा लंबा नहीं रहा, क्योंकि फाल्के की पत्नी और उनके बच्चे की प्लेग से मौत हो गई थी।

मशहूर कार्ल हर्ट्ज से सीखा ‘जादू’

ड्राइंग में एक साल के प्रशिक्षण के अलावा, फाल्के ने अपना दाखिला कला भवन में ऑयल पेंटिंग और वाटर कलर पेंटिंग सीखने के लिए भी कराया था। वहीं उन्होंने आर्किटेक्चर के साथ-साथ फोटोग्राफी भी सीखी। उसी दौरान उन्होंने एक कैमरा खरीदा और फोटोग्राफी और प्रिंटिंग के साथ अपने प्रयोग शुरू किए।

1890 के दशक के मध्य फाल्के ने एक पेशेवर फोटोग्राफर के रूप में अपने करियर की शुरुआत की, पोर्ट्रेट क्लिक किए और फैमिली एल्बम भी बनाए। लेकिन उनका यह पेशा अल्पकालिक ही रहा। बिजनेस न चलने के कारण वह गोधरा से बड़ौदा आ गए।

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसा कहा जाात है कि दादासाहब फाल्के ने मशहूर इल्यूजनिस्ट कार्ल हर्ट्ज से कुछ ‘जादू’ भी सीखा था, जिसमें ट्रिक फोटोग्राफी की कुछ तकनीकें भी शामिल थीं। बाद में फाल्के ने इन कलाओं का इस्तेमाल अपनी फिल्मों में किया।

बता दें कि हर्ट्ज उन प्रसिद्ध जादूगरों में से एक थे जिन्होंने सिनेमैटोग्राफी के शुरुआती वर्षों के दौरान फिल्मों को अपने परफॉरमेंस की लिस्ट में शामिल था। हर्ट्ज 28 मार्च, 1896 को रॉयल मेल स्टीमर नॉर्मन (एक मशहूर जहाज) पर इंग्लैंड से रवाना हुए और यात्रा के दौरान यात्रियों को रॉबर्ट विलियम पॉल के थिएट्रोग्राफ का प्रदर्शन किया। ऑस्ट्रेलिया के बाद उन्होंने सीलोन (अब श्रीलंका), भारत, चीन, जापान, फिजी द्वीप समूह और हवाई का जादूगर के रूप में दौरा किया।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में की नौकरी

1900 की शुरुआत में फाल्के ने फिर से शादी की। उनकी पत्नी का नाम गिरिजा उर्फ सरस्वती था। सरस्वती पेशेवर रूप से फाल्के का सहयोग भी करती थीं। बहुत से लोग नहीं जानते हैं, लेकिन फाल्के ने एक ड्राफ्ट्समैन के रूप में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (यह एक सरकारी एजेंसी है, जो पुरातात्विक अनुसंधान और देश के सांस्कृतिक ऐतिहासिक स्मारकों के संरक्षण का काम करती है।) के साथ भी काम किया, लेकिन सेटिस्फेक्शन न मिलने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी।

इसके बाद फाल्के ने लोनावाला में एक प्रिंटिंग प्रेस शुरू की। प्रिंटिंग प्रेस का नाम लक्ष्मी आर्ट प्रिंटिंग वर्क्स था। फाल्के इस प्रेस में दिवंगत महान चित्रकार राजा रवि वर्मा के साथ मिलकर काम करते थे। हालांकि मतभेदों के कारण उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस को लंबे समय तक छोड़ दिया था।

अभिनेत्री की तलाश में रेड लाइट एरिया भी गए थे फाल्के

दादासाहब फाल्के पर फ्रांसीसी निर्देशक ऐलिस गाइ-ब्लाचे की फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ का गहरा प्रभाव पड़ा। इसके बाद ही उन्होंने सोचना शुरू किया कि कैसे भारतीय देवताओं को स्क्रीन पर दिखाया जाए। वह रिसर्च के लिए लंदन भी गए थे। 1912 में उन्होंने अपनी फिल्म कंपनी ‘फाल्के फिल्म्स कंपनी’ की स्थापना की। लगभग आठ महीने की मेहनत के बाद देश को अपनी पहली साइलेंट मूविंग पिक्चर ‘राजा हरिश्चंद्र’ के रूप में मिली। फाल्के ने इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक और लेखक तीनों थे। उनकी पत्नी सरस्वती ने कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग और फूड केटरिंग में मदद की थी।

बीबीसी हिंदी पर प्रकाशित मधु पाल की एक रिपोर्ट में फाल्के के नाती चंद्रशेखर पुसालकर के हवाले से बताया है कि राजा हरिश्चंद्र बनाना के लिए सरस्वती को अपने गहने गिरवी रखने पड़े थे। तारामती का किरदार निभाने के लिए कोई महिला नहीं मिल रही थी। वह इसके लिए रेड लाइट भी गए थे, लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी। बाद में सालुंके नाम के एक लड़के ने तारामती का किरदार निभाया।

भारतीय सिनेमा की डाली नींव

इस तरह स्वतंत्रता मिलने से तीन दशक पहले साल 1913 में भारतीय सिनेमा की नींव पड़ी। फिल्म निर्माता के रूप में दादासाहेब फाल्के का करियर लगभग दो दशक का रहा। इस दौरान उन्होंने 27 लघु फिल्में और 90 से अधिक फुल फ्लेज्ड फिल्में बनाईं। उनकी प्रसिद्ध फिल्मों में लंका दहन, श्री कृष्ण जन्म और सत्यवान सावित्री शामिल है। 16 फरवरी, 1944 को फाल्के का निधन हुआ था। भारत सरकार ने 1969 में दादासाहब फाल्के के नाम पर ‘दादासाहब फाल्के पुरस्कार’ की घोषणा की थी, जो भारत में फिल्म जगत का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार है।