भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को मरणोपरांत भारत रत्न दिए जाने की घोषणा हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद चरण सिंह को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिए जाने की जानकारी दी है। इस घोषणा के बाद राष्ट्रीय लोकदल (RLD) के अध्यक्ष जयंत सिंह ने पीएम मोदी के पोस्ट को अपनी प्रोफाइल पर शेयर करते हुए लिखा है- दिल जीत लिया।
आम चुनाव से कुछ माह पहले हुए इस एलान और जयंत की प्रतिक्रिया के राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। लेकिन यहां उस बारे में चर्चा नहीं करेंगे। इस आर्टिकल में यह समझने की कोशिश करेंगे कि भाजपा और उसके वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के साथ चौधरी चरण सिंह के संबंध कैसे थे?
जब चरण सिंह ने RSS पर लगाया रैली में खलल डालने का आरोप
मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी देश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार गिराने के बाद चौधरी चरण सिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने थे। उनका कार्यकाल 28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी 1980 तक था। वह भारत के अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो पद पर रहते हुए कभी संसद में नहीं गए।
खैर, हम जो किस्सा बताने वाले हैं वह नवंबर 1979 का है। प्रधानमंत्री रहते हुए चौधरी चरण सिंह चुनाव रैली करने मध्य प्रदेश गए थे। वहां दो दिन के भीतर उनकी चार रैलियों में ‘कुछ लोगों’ द्वारा हंगामा किया गया था।
चरण सिंह इंदौर में जब अपनी चौथी चुनावी सभा कर रहे थे, तब दर्शकों के एक वर्ग ने धक्का-मुक्की कर सभा में खलल डालने की कोशिश की। प्रधानमंत्री चरण सिंह ने अपनी सार्वजनिक बैठकों में खलल डालने के लिए “जनसंघ-आरएसएस तत्वों” को दोषी ठहराया और गुस्से में आकर चेतावनी दी कि लोकदल (चरण सिंह की पार्टी) जनसंघ (अब भाजपा) को देश में कहीं भी एक भी चुनावी बैठक नहीं करने देगी।
दरअसल, इंदौर की चुनाव सभा से पहले की तीन अन्य रैलियों (झाबुआ, रतलाम और धारोन) में भी इस तरह का हंगामा देखा गया था। तीनों स्थानों पर चरण सिंह ने सीधे तौर पर जनसंघ-आरएसएस से जुड़े लोगों को ‘समस्या पैदा’ करने के लिए जिम्मेदार ठहराया था।
चरण सिंह से खुन्नस खाया हुआ था RSS-जनसंघ!
आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी और कांग्रेस को हराकर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार में चरण सिंह उप प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और वित्त मंत्री थे। दिलचस्प है कि मोरारजी देसाई की दो साल चार महीने की सरकार में दो लोगों उप प्रधानमंत्री, तीन लोगों ने गृह राज्य मंत्री और दो लोगों ने वित्त मंत्री का पद संभाला था। यह जनता पार्टी (जनसंघ, भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी सहित कई विपक्षी दलों को मिलाकर बनी पार्टी) सरकार की अंतर्कलह का परिणाम था।
चुनाव के बाद जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए प्रधानमंत्री के चयन में भी कुछ चालाकियां हुई थीं। प्रधानमंत्री की रेस में चरण सिंह भी शामिल थे क्योंकि उनके नेतृत्व में 100 से अधिक सांसद थे। हालांकि तब चरण सिंह प्रधानमंत्री नहीं बन सके। सरकार बनने के कुछ समय बाद ही चरण सिंह यह आरोप लगाने लगे कि भारतीय जनसंघ और मोरारजी देसाई उन्हें कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं।
चरण सिंह के इन आरोपों के पीछे कुछ घटनाएं थी। केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद चरण सिंह के बनाए हुए मुख्यमंत्रियों को हटाया जाने लगा। उत्तर प्रदेश से रामनरेश यादव, बिहार से कर्पूरी ठाकुर और हरियाणा से देवीलाल की सरकार चली गई। चरण सिंह के गुट ने आरोप लगाया कि ये सब जनसंघ का षड्यंत्र है।
इन सब के बीच चरण सिंह ने जनसंघ ने नेताओं की ‘दोहरी सदस्यता’ का मामला उठाया। दरअसल, आपातकाल के दौरान जेपी ने जब आंदोलन शुरू किया था तो उन्होंने जनसंघ के नेताओं को इसी शर्त पर साथ रखा था कि वे आरएसएस की सदस्यता को पूरी तरह से छोड़ देंगे। लेकिन आपातकाल खत्म होने और जनता पार्टी बनने के बाद भी जनसंघ के कई सांसदों के पास आरएसएस की सदस्यता थी।
पहले से तय हुई बातों के मुताबिक, कोई जनता पार्टी का कोई नेता आरएसएस का सदस्य नहीं हो सकता था। ऐसे में चरण सिंह समेत अन्य समाजवादियों ने संघ से संबंध रखने वाले नेताओं को बाहर करने की मांग उठाई। जब जनसंघ के सांसद नहीं माने तो चरण सिंह ने सरकार से बाहर हो गए और कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बन गए।
चरण सिंह को पहले भी पसंद नहीं करता था संघ
1960 के दशक में भारतीय जनसंघ की मदद से मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गठबंधन सरकारें बनी थी। लेकिन जनसंघ के वैचारिक संगठन आरएसएस को यह पसंद नहीं आया था।
चरण सिंह एक अप्रैल, 1967 को भावुक होकर कांग्रेस से अलग हुए थे और दो दिन बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। यह उत्तर प्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार। चरण सिंह की सरकार को जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी का समर्थन था।
अपनी योजना के मुताबिक, जनसंघ नेता अटल बिहारी वाजपेयी आदि सरकार बनाकर खुश थे। लेकिन संघ मायूस था। 1967 में उत्तर प्रदेश की स्थिति का जिक्र करते हुए बीजेएस संस्थापकों में से एक और संघ प्रचारक नानाजी देशमुख ने लिखा था- हमारी पार्टी ने एक अलग पार्टी की छवि खो दी… हमारे लोग महत्वपूर्ण नेताओं के रूप में उभरे लेकिन हम न तो अपनी छवि बरकरार रख पाये और न ही हमारा संगठन वैसा रह सका। कार्यकर्ताओं की पार्टी को नेताओं की पार्टी में बदल दिया गया।”