भगत सिंह (Bhagat Singh) अपने समय की समस्याओं को लेकर बेहद चिंतित रहे। साथ ही वह विभिन्न धर्म के उच्च जातियों के नेतृत्व वाले सामाजिक सुधार आंदोलनों को संदेह से देखते थे। मसलन छुआछूत और जातिवाद की समस्या पर भगत सिंह अपने समय में बहुत गंभीरता से विचार कर रहे थे। उन्होंने अपने एक लेख में इस समस्या और उसके समाधान का विस्तार से वर्णन किया है। उसी लेख में उन्होंने मदन मोहन मालवीय (Madan Mohan Malaviya) जैसे समाज सुधारकों की ‘सच्चाई’ भी बताई है।
जातिवाद, भगत सिंह और मालवीय
भगत सिंह के दौर में भारतीय समाज में जातिवाद इस कदर हावी था कि देश की सबसे प्रमुख पार्टी भी वर्गभेद को मजबूत करने वाले फैसले को महत्वपूर्ण मानती थी। साल 1923 में कांग्रेस अधिवेशन काकीनाडा में हुआ था। उस अधिवेशन की अध्यक्षता तत्कालीन कांग्रेस नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने की थी। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने अछूतों (वर्तमान में अनुसूचित जातियों) को हिन्दू और मुस्लिम मिशनरी संस्थाओं में बांट देना सुझाव दिया था।
जिन्ना के भाषण से पता चलता है कि तब किस तरह अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले लोगों को ‘वस्तु’ की तरह बांटने का सुझाव देना सहज था। देश की ऐसी परिस्थिति के बीच भगत सिंह ‘अछूत का सवाल’ नाम से एक लेख लिखा था। वह लेख जून, 1928 में ‘किरती’ नामक अखबार में विद्रोही नाम से ए प्रकाशित हुआ था।
भगत सिंह अपने लेख में लिखते हैं, “हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं। …हम सदा ही आत्मा-परमात्मा के वजूद को लेकर चिंतित होने तथा इस जोरदार बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जाएगा? वे वेद-शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं? हम उलाहना देते हैं कि हमारे साथ विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता। अंग्रेजी शासन हमें अंग्रेजों के समान नहीं समझता। लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है?”
अस्पृश्यता को दूर करने के लिए अभियान चलाने वाले मदन मोहन मालवीय की आलोचना करते हुए भगत सिंह लिखते हैं, “कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है। इस समय मालवीय जी जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं। लेकिन कपड़ों सहित नहाए बिना खुद को अशुद्ध समझते हैं! क्या खूब यह चाल है।”
उदारवादी रूढ़िवादी!
मदन मोहन मालवीय शिक्षाविद, वकील, पत्रकार, राजनेता और समाज सुधारक थे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना से लेकर हिंदुस्तान टाइम्स को पुनर्जीवित करने तक और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी मालवीय ने बहुत बड़ा योगदान दिया है। कई लेखों और दस्तावेजों में यह दावा किया जाता है कि छुआछूत के खिलाफ आंदोलन चलाने और सार्वजनिक जीवन में उदारवादी बने रहने के बावजूद मालवीय ने निजी तौर पर कभी “गैर-ब्राह्मणों” के हाथों से भोजन स्वीकार नहीं किया।
मदन मोहन मालवीय ने साल 1906 में हिंदू महासभा की स्थापना में मदद की थी। वह कांग्रेस पार्टी में लंबे समय तक रहे। उनका राजनीतिक करियर पांच दशक से अधिक समय का है।