सोलहवीं सदी में मुगल विस्तारवाद को चुनौती देने वाले देने वाले असमिया योद्धा लचित बरफुकन एक बार फिर चर्चा में हैं। शनिवार को असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा लचित की निर्माणाधीन प्रतिमा का जायजा लेने गाजियाबाद पहुंचे।
मुख्यमंत्री ने प्रसिद्ध मूर्तिकार राम वी. सुतार की फैक्ट्री में पहुंचकर मूर्ति का जायजा लिया। बता दें असम के जोरहाट में हिमंत बिस्वा सरमा की नेतृत्व वाली भाजपा सरकार लचित बरफुकन की बड़ी प्रतिमा लगाने वाली है। पिछले साल लचित बरफुकन की 400वी जयंती के मौके पर सरमा ने स्मारक की आधारशिला रखी थी।
मूर्तिकार राम वी. सुतार के बेटे अनिल सुतार ने जनसत्ता डॉट कॉम से बातचीत में बताया, “84 फिट की यह प्रतिमा ठोस कांस्य से बन रही है। सीएम सरमा प्रगति देखने आए थे। 50 फीसदी काम पूरा हो चुका है। अगले साल जनवरी में यह प्रतिमा असम सरकार को सौंप दी जाएगी।”
कौन थे लचित बरफुकन?
लचित बरफुकन का जन्म 1622 ई. में हुआ था। वह राजा मोमाई तमुली बोरबरुआ के सबसे छोटे बेटे थे। जहांगीर और शाहजहां के शासनकाल के दौरान मुगलों के खिलाफ युद्ध लड़ते हुए वह जनरल के पद तक पहुंचे थे।
अपनी किताब ‘शौर्यगाथाएं-भारतीय इतिहास के अविस्मरणीय योद्धा’ में इतिहासकार विक्रम सम्पत बताते हैं कि लचित के पिता ने 1639 में अल्लाह यार खान के साथ हुई असुरार अली संधि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह संधि ही कई दशकों तक अहोम-मुगल संबंधों की बुनियाद रही। लचित की बहन की बेटी का विवाह औरंगजेब के तीसरे बेटे सुल्तान आजमतारा से हुआ था। मुगल लचित के पिता के कामकाज की सराहना करते थे।
लचित को राजकाज चलाने का गुण अपने पिता से विरासत में मिला था। उन्हें बचपन से अच्छे शिक्षक मिले। उन्होंने सैन्य कौशल और ग्रंथों की गहरी शिक्षा ली थी। वह अपनी योग्यता के आधारा पर धीरे-धीरे बरफुकन के पद तक पहुंचे थे।
ये बरफुकन क्या होता है?
लचित बरफुकन अहोम वंश के शासक थे। अहोमों ने करीब 600 वर्षों तक राज किया था। उस वंश की नींव 1128 ईस्वी में चीन के यन्नान प्रांत में आज के मोंग माओ कहलाने वाले एक ताई राजकुमार सुखपा (चाओ लुंग सिउ-का- फा) ने रखी थी। उनका इतिहास बेहद व्यवस्थित तरीके से दस्तावेजी रूप में संभालकर रखा गया है, जिन्हें बुरन्जिस कहते हैं। दिल्ली सल्तनत ने सोलहवीं सदी में कई बार असम पर हमला किया, लेकिन उसे कभी सफलता नहीं मिली।
ढांचागत तौर पर अहोम राज्य सैन्य अनुशासन में बंटा था। संस्थापक सुखप्पा के वंश से आने वाले राजा को स्वर्गदेव के उत्कृष्ट शीर्षक से भी जाना जाता था। आरंभिक काल में उनके दो प्रमुख गोहेन या मंत्री/सलाहकार होते थे—बुर्हागोहेन और बार्गोहेन। उन्हें स्वायत्त तौर पर स्वतंत्र क्षेत्र दिए जाते थे। 1527 में बोर्पोत्रोगोहेन नाम का एक नवीन पद तैयार किया गया और बाद में अहोम नरेश प्रताप सिंह (शासनकाल 1603-41) के अंतर्गत बोरबरुआ एवं बोड़फुकन नामक दो और पद स्थापित हुए।
लचित को औपचारिक तौर पर बरफुकन नियुक्त करने से पहले राजा उनकी परीक्षा ली थी। लचित को राज दरबार में आने को कहा गया, वह प्रणाम करने के लिए जैसे ही झुके, पूर्वनियोजित तरीके से एक सहायक पीछे से आया और लचित का मुकुट छीन लिया था।
असमिया परंपरा में इसे किसी भी व्यक्ति की गरिमा और आत्मसम्मान का गहरा अपमान माना जाता है। राजा, लचित के आत्मसम्मान और उसकी दृष्टि का परीक्षण करना चाहते थे। लचित तुरंत उठकर अपनी तलवार खींच ली और उद्दंड सहायक की गर्दन काटने के लिए आगे बढ़ा, जो तब तक राजा के कदमों के निकट जाकर बैठ गया था। समूचे दृश्य से राजा बेहद संतुष्ट हुए और उन्होंने लचित को औपचारिक तौर पर सेनापति तथा बरफुकन नियुक्त करते हुए। उन्हें स्वर्ण-दस्ते वाले तलवार तथा राजकीय गौरव के विशिष्ट चिह्न प्रदान किए गए।
शिवाजी से ली प्रेरणा
1663 और 1665 ईस्वी के दौरान, मराठा नायक छत्रपति शिवाजी की मुगलों के खिलाफ सफलता ने अहोमों को सबसे अधिक आकर्षित किया और अपने उन्नत भविष्य के लिए उन्हें हिम्मत दी थी। छत्रपति शिवाजी उनके लिए आदर्श सरीखे बन गए थे, जिनसे प्रेरणा लेकर वह उन्हीं की तरह मुगल बादशाह और उनकी सेना को समाप्त कर सकते थे।
मुगलों से क्यों हुई टक्कर?
मुगल शासक औरंगजेब के आदेश पर बंगाल के गवर्नर मीर जुमला ने 17 मार्च, 1662 को असम पर आक्रमण किया था। मीर ने असमिया सेनाओं को कुचलकर सत्तारूढ़ अहोम राजवंश की राजधानी गढ़गांव पर कब्जा कर लिया था।
इसके अलावा मुगलों ने अहोम राजा जयध्वज सिंघा को 23 जनवरी, 1663 को घिलाझारीघाट की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था, जिसके तहत मध्य और निचले असम में अहोम क्षेत्र को छोड़ना था। साथ ही अहोम राजा दिल्ली का जागीरदार बनकर रहना था। इस संधि ने असमिया राष्ट्रवादी गौरव को बहुत बड़ा झटका दिया।
एक अन्य महान योद्धा राजनेता अतान बुरहागोहेन के मार्गदर्शन में राजा ने सैनिकों को प्रशिक्षण देना शुरू किया ताकि वे युद्ध के लिए तैयार रहें। नाव निर्माण के साथ-साथ हथियार उद्योग भी पूरे जोरों दिया गया। 1667 तक राजा संतुष्ट थे कि युद्ध की तैयारी पूरी हो गई थी और वह मुगल सेना के खिलाफ अपना कदम उठा सकते थे। उन्होंने अपनी सेना की कमान के लिए लाचित को चुना। शुरुआती लड़ाई में सफलता भी मिली। दिसंबर 1667 में जब मुगल सम्राट औरंगजेब को अपनी सेना की हार का पता चला उसने, हमला के लिए बड़ी फौज को रवाना किया।
बीमार लचित ने संभाला मोर्चा
आरंभिक चरणों में कोई सीधा टकराव नहीं हुआ। लाचित की रणनीति दुश्मन को नौसैनिक युद्ध में फंसाने की थी। इस प्रकार 1669 और 1670 तक कई छिटपुट गतिविधियाँ जारी रहीं। किसी को बड़ी बढ़त नहीं मिली।
अंततः युद्ध को लंबा खिंचता देख औरंगजेब से रहा न गया, जिससे राम सिंह (औरंगजेब के लिए लड़ने आए राजा) को सीधा हमला करने के लिए मजबूर होना पड़ा। राजपूत सेनापति को इस खबर से भी प्रोत्साहन मिला कि लाचित गंभीर रूप से बीमार हैं और बिस्तर पर हैं और अहोम सेना का नेतृत्व नहीं कर सकते।
इस प्रकार मार्च, 1671 में सरायघाट की प्रसिद्ध लड़ाई शुरू हुई, जिसमें अहोमों ने मुगल विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं को करारा झटका दिया। हालांकि, प्रारंभ में लाचित के नेतृत्व न करने से अहोम सैनिक हतोत्साहित थे और हार का खतरा मंडराने लगा था। लेकिन जब वह बीमारी की हालत में भी सेना की कमान संभालने पहुंचे तो सैनिकों में जोश आ गया।
लचित ने चिल्लाकर निर्देश दिए और उनके सेवक उन्हें एक युद्ध-नाव पर ले गए, जो तेजी से दुश्मन की ओर बढ़ रही थी। लाचित को उनका नेतृत्व करने के लिए आते देख, सैनिक नए साहस और आशा से उत्साहित हो गए। मुगल सेना को मानस नदी से आगे खदेड़ दिया गया। यह असमिया के लिए एक निर्णायक जीत थी।
सरायघाट की लड़ाई ने साबित कर दिया कि लाचित बरफुकन एक कुशल रणनीतिकार थे जिनकी तुलना भारत के किसी भी हिस्से के महान सेनापतियों से की जा सकती है। 1999 में स्थापित लाचित बरफुकन स्वर्ण पदक, नेशनल डिफेंस अकादमी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को दिया जाता है।
