ब्रिटेन में आजकल ब्रेक्जिट को लेकर सियासी कोहराम मचा है। 28 देशों वाले यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला तो ब्रिटेन के लोग जून 2016 में हुए जनमत संग्रह में कर चुके हैं, लेकिन अब यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के तलाक की घड़ी करीब आ गई। 29 मार्च 2019 से इसकी प्रक्रिया शुरू होगी और 31 दिसंबर 2020 तक पूरी कर ली जाएगी। आजकल इसके तौर तरीके तय किए जा रहे हैं। लंबी मशक्कत और खींचतान के बाद पिछले दिनों यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के बीच डील का एलान किया गया, लेकिन यही डील ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरीजा मे के लिए गले की फांस बन रही है। इस डील को लेकर उन्हें अपने और पराए सभी निशाना बना रहे हैं। उनकी सरकार के चार मंत्री इस्तीफा दे चुके हैं और कई धमकी दे रहे हैं कि उनकी बात नहीं सुनी गई तो वे भी पद छोड़ने से नहीं कतराएंगे।

प्रधानमंत्री टेरीजा मे के नेतृत्व पर भी सवाल उठ रहे हैं। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन का क्या होगा? ब्रेक्जिट के मुद्दे पर ब्रिटेन दो फाड़ दिखाई देता है। खींचतान सिर्फ इस बात पर नहीं हो रही है कि डील ब्रिटेन के लिए अच्छी या है बुरी, बल्कि कुछ लोग अब भी आस लगाए बैठे हैं कि ब्रेक्जिट हो ही ना।

ब्रेक्जिट के विरोधी एक नए जनमत संग्रह की मांग कर रहे हैं जिसमें फिर एक बार लोगों से पूछा जाए कि क्या वे वाकई यूरोपीय संघ से अलग होना चाहते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री टेरीजा मे कह चुकी हैं कि ऐसे जनमत संग्रह की कोई गुंजाइश नहीं है। यानी ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से निकलने का फैसला अंतिम होगा। लेकिन इस फैसले को अंजाम तक पहुंचाने में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को पसीने छूट रहे हैं। वह फूंक फूंक कर कदम रखने को मजबूर हैं।

ब्रिटेन आज ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। प्रधानमंत्री मे के सामने देश के आर्थिक, व्यापारिक और राजनीतिक हितों को सुरक्षित रखने की चुनौती है। राजनीतिक तौर पर ब्रिटेन भले ही यूरोपीय संघ से अलग हो जाए, लेकिन भौगोलिक तौर पर तो वह हमेशा यूरोप का ही हिस्सा रहेगा। और आम तौर पर दुनिया के लिए यूरोप का मतलब है यूरोपीय संघ, जिसमें ब्रिटेन के निकलने के बाद 27 देश बचेंगे। यही संघ यूरोप की दिशा तय करता है। इसलिए प्रधानमंत्री मे के लिए जरूरी है कि यूरोपीय संघ से तलाक भले ही हो, लेकिन इस प्रक्रिया में कड़वाहट कम से कम हो।

इसीलिए ब्रेक्जिट डील उनके लिए जरूरी है। दूसरी तरफ मे के विरोधियों को यह डील गले नहीं उतर रही है। उनका कहना है कि यह डील ब्रेक्जिट जनमत संग्रह के जनादेश का सम्मान नहीं करती है। इस डील का मसौदा 585 पन्नों में दर्ज है। लेकिन इसमें चार पांच बातें बड़ी साफ हैं। पहला ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग होने के लिए 50 अरब डॉलर की बकाया रकम चुकानी होगी। डील के विरोधी इसे तलाक की कीमत बता रहे हैं।

ब्रेक्जिट की प्रक्रिया आधिकारिक तौर पर 29 मार्च को शुरू होगी और 31 दिसंबर 2020 तक पूरी कर ली जाएगी। इस अवधि को ट्रांजिट पीरियड कहा जा रहा है, जिसमें यूरोपीय संघ और ब्रिटेन को व्यापारिक समझौते करने का समय मिलेगा। इस दौरान कंपनियों के पास अपने कारोबार एडजस्ट करने का वक्त भी होगा। साथ ही यूरोपीय देशों के नागरिक भी 31 दिसंबर 2020 तक बिना रोकटोक ब्रिटेन आ जा सकेंगे।

डील में जिस मुद्दे को लेकर सबसे ज्यादा खींचतान रही, वह है उत्तरी आयरलैंड के बॉर्डर का मुद्दा। उत्तरी आयरलैंड ब्रिटेन का हिस्सा है जिसकी सीमाएं यूरोपीय संघ के सदस्य आयरलैंड से मिलती है। दरअसल यह दोनों हिस्से आयरलैंड द्वीप का हिस्सा हैं। ऐसे में, ब्रेक्जिट के बाद आयरलैंड और उत्तरी आयरलैंड के बीच सख्त बॉर्डर कायम करने के हक में ना तो ब्रिटेन है और ना ही यूरोपीय संघ। लेकिन इसका मतलब है कि उत्तरी आयरलैंड को यूरोपीय संघ के कुछ नियम मानने होंगे। डील के विरोधियों को यह बिल्कुल पसंद नहीं है कि उत्तरी आयरलैंड में नियम कानून बाकी ब्रिटेन से अलग हों।

प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने ब्रेक्जिट डील को अपनी कैबिनेट से तो जैसे तैसे पास करा लिया। अब उनकी कोशिश है कि 25 नवंबर को होने वाले शिखर सम्मेलन में इस डील पर यूरोपीय नेताओं की मंजूरी हासिल करें। वहां से हरी झंडी मिलने के बाद डील को वह ब्रिटिश संसद में रखेंगी। यही उनके लिए अग्निपरीक्षा है। डील के खिलाफ ब्रिटेन में जिस तरह का बवंडर उठा है, उसे देखते हुए संसद में प्रधानमंत्री मे को शिकस्त मिलनी तय है। उनके पास कंजरवेटिव पार्टी के इतने सांसद नहीं है कि डील पर मंजूरी की मुहर लगवा सकें और बाकी पार्टियों के सांसद डील से खुश नहीं हैं।

ब्रिटेन चार दशक से यूरोपीय संघ का हिस्सा है। लेकिन उसकी छवि हमेशा परिवार में ‘हरदम नखरे करने वाले बच्चे’ की ही रही। ना उसने कभी यूरोप की साझा मुद्रा यूरो को अपनाने में दिलचस्पी दिखाई और ना ही वह मुक्त सीमाओं वाले शेंगेन समझौते में शामिल हुआ। यूरोपीय संघ में सहयोगी होने के बावजूद जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों को वह हमेशा प्रतिद्वंद्वियों की तरह देखता रहा।

ब्रिटेन के बहुत से लोगों को शायद यह बात मंजूर नहीं थी कि उनके फैसले यूरोपीय संघ के मुख्यालय ब्रसेल्स में कैसे हो सकते हैं। खास कर उस देश के फैसले, जो कभी दुनिया की दिशा तय करता था। यह सही है कि एक जमाने में ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूरज नहीं छिपता था। लेकिन 21वीं सदी के लिए वह सब इतिहास का हिस्सा है।

ब्रेक्जिट की पैरवी करने वाले हमेशा संप्रभुता की दुहाई देते हैं कि यूरोपीय संघ से निकलने के बाद वह अपनी किस्मत के खुद मालिक होंगे। लेकिन मौजूदा दौर की हकीकत यही है कि यूरोप की ताकत उसकी एकता में है। बंधी मुट्ठी लाख की और खुली तो खाक की। ब्रेक्जिट पर जनमत संग्रह होने से भी लगभग तीन साल पहले, यानी 2013 में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने कहा था कि ब्रिटेन ‘अब सिर्फ एक छोटा सा टापू है जिसकी कोई नहीं सुनता’।

उस वक्त ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने इस पर सख्त ऐतराज किया था। लेकिन उस बयान की गूंज अब ब्रिटेन के लिए चुनौती बन गई है, जिससे मौजूदा प्रधानमंत्री टेरीजा मे को निपटना है। ब्रिटेन के सामने पेस्कोव की कही बात से पार पाने की चुनौती है।