अफगानिस्तान में 17 साल के लंबे संघर्ष के बाद अमेरिका, रूस और भारत समेत कई संबंद्ध पक्षों ने अलग-अलग समूहों में तालिबान के साथ सीधी बातचीत की राह पकड़ी है। अमेरिका ने अपने बहुप्रचारित ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ में अफगानिस्तान पर हमला कर 2001 में तालिबान को काबुल की सत्ता से हटा दिया था। लेकिन अभी तक लगभग आधे इलाके से ही तालिबान का प्रभाव खत्म किया जा सका है। अफगानिस्तान के 45 फीसद जिलों में तालिबान का नियंत्रण है। अमेरिकी और तालिबानी प्रतिनिधियों के बीच हाल में कतर वार्ता के बाद अमेरिकी सेना के तेहरान में स्थित कमान के ज्वाइंट चीफ जनरल जोसेफ डनफोर्ड की टिप्पणी आई है कि युद्धग्रस्त उस देश में ‘तालिबान हार नहीं रहे।’ जनरल डनफोर्ड अमेरिकी फौज के उन अधिकारियों की बढ़ती कतार में शामिल हैं, जो मानती है कि अफगानिस्तान समस्या का हल सैन्य कार्रवाई में नहीं है।
क्या है शांति वार्ता में पेच
अमेरिका में अफगानिस्तान को लेकर सोच खुलकर सामने आ गई है। अमेरिकी फौज का एक वर्ग तालिबान से बातचीत के लिए अरसे से दबाव बना रहा था। ऐसे में जब शांति वार्ता की कवायद शुरू हुई, तब तालिबान ने अफगानिस्तान की सरकार के साथ सीधी बातचीत से मना कर दिया था, क्योंकि उसकी नजर में अफगानी सरकार गैर कानूनी है। वह 2001 के बाद से अमेरिका को ही असली सत्ता मानता रहा है। इस कारण तालिबान लंबे समय से अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं को हटाने की मांग करता आ रहा है। लेकिन अमेरिकियों से बातचीत में कई रोड़े आ रहे हैं। हाल में कतर वार्ता के बाद तालिबान ने हमले तेज कर दिए। अब बातचीत के लिए जिनेवा में टेबल सजाने की कवायद चल रही है।
भारत की भूमिका
इन घटनाओं के संदर्भ में मॉस्को में चली कवायद भारत के लिहाज से अहम मानी जा रही है। अफगानिस्तान को लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनय की पुख्ता गोलबंदी कतर वार्ता के हफ्ता भर पहले मास्को में दिखी। तालिबान के जनक रहे मौलाना समी-उल-हक की रावलपिंडी में हत्या की पृष्ठभूमि में मॉस्को वार्ता हुई। रूस कई महीने से इसकी तैयारी कर रहा था। वह अफगानिस्तान सरकार, तालिबान, अमेरिका, भारत, चीन और पाकिस्तान सहित कई देशों के प्रतिनिधियों को एक मेज पर लाने में सफल रहा। हालांकि इस बैठक में अफगानिस्तान और भारत ने अपने विदेश मंत्रालयों से किसी को भेजने की जगह विशेष प्रतिनिधि भेजे। भारत सरकार ने विदेश सेवा के दो अवकाश प्राप्त राजनयिकों- सेवानिवृत्त राजनयिक टीसीए राघवन और अमर सिन्हा को भेजा।
अमर सिन्हा अफगानिस्तान में भारत के राजदूत और राघवन पाकिस्तान में उच्चायुक्त रह चुके हैं। गैर सरकारी स्तर पर शामिल होकर भारत ने एक ओर अपनी उस नीति का पालन किया कि आतंकी गुटों से बात नहीं होगी। दूसरी ओर, इस वार्ता के जरिए भारत ने उन मध्य एशियाई और फारस की खाड़ी के देशों में संतुलन साधा, जहां शह-मात के खेल में अमेरिकी दखलंदाजी प्रभावी हो रही है।
भारत ने साधा संतुलन
दरअसल, दिसंबर 1999 में भारतीय यात्री विमान आइसी-814 के अपहरण के समय भारत ने अपने को असहाय पाया था। तब पाकिस्तान के लिए मैदान खुला था। वहां की तालिबान सरकार पाकिस्तान पर निर्भर थी। लिहाजा, भारत को तालिबान सरकार से सक्रिय संबंध न रखने की कीमत चुकानी पड़ी थी। उस अनुभव के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने रूस के जरिए तालिबान से संपर्क रखने की नीति पर काम शुरू किया। मॉस्को वार्ता में उसका असर खुलकर दिखा। उससे पहले अप्रैल 2010 में तालिबान प्रवक्ता का बयान आया था कि हम नहीं चाहते कि भारत अफगानिस्तान से चला जाए। भारत से तालिबान का कोई सीधा टकराव नहीं है। यह मुमकिन है कि तालिबान और भारत एक साथ काम करें। नतीजा यह कि बीते करीब दस वर्षों में भारत ने निर्वाचित अफगान सरकार के साथ ही तालिबान गुटों से भी रिश्ते संतुलित रखे हैं।
भारत की नीति…बनी रहे मित्र सरकार
भारत की नीति स्पष्ट है। मॉस्को वार्ता में तालिबान ने कुछ सवाल उठाए, जो भारत के साथ अफगानिस्तान के दूरगामी रिश्तों को प्रभावित करेंगे। मसलन, शांति वार्ता के सफल होने की हालत में काबुल हुकूमत की शक्ल क्या होगी? क्या मिली-जुली सरकार संभव होगी? इस सवाल को आगे रखते हुए भारत ने इरादे साफ कर दिए हैं- अफगानिस्तान में विकास की मद में लगे करोड़ों डॉलर का नुकसान न हो पाए और काबुल में मित्र सरकार बनी रहे, ईरान-अफगान सीमा तक पहुंच निर्बाध रहे और जलालाबाद सहित सभी पांच वाणिज्य दूतावास बेरोक-टोक काम करते रहें।